Bheekh aur Bhikhari (beggar) ki qismein

भीख और भिखारी की क़िस्में 


Bheekh aur Bhikhari (beggar) ki qismein

भिखारी (फ़कीर):

हम सभी अक्सर अपने आस पास देखते है कि कुछ लोग जो बदहाल नज़र आते है, वो रोड पर, बाज़ारो में,  ट्रेफिक लाइट पर चलती-रुकती गाड़ियों से या फिर घर-घर जाकर लोगों से पैसे मांगते हैं। अल्लाह के नाम पर या उसके नाम पर जिसे वो अपना ईश्वर मानते है। ऐसे लोगों को हम भिखारी बोलते है। जबकि कुछ लोग जो जज़्बाती होते है वो ऐसे लोगों को ज़रूरतमंद कहते हैं।


भिखारी यानि फ़कीर और मिस्कीन में फर्क़:

अब ये बात हमारे सोचने की है कि क्या ये दोनों ही बाते एक हैं? या एक हो सकती हैं? 

नही, हरगिज़ नही।

प्रोफ़ेशनल भिखारी जानबूझकर अपना हुलिया ख़राब करता है, अपने चेहरे और बालों को गन्दा रखता है। जब कोई उसे पैसे नही देता तो उसके पीछे यूँ लग जाता है जैसे कोई शख़्स दुनियां में रहा ही नही, जब कोई पैसे देदे तो ये अपनी लाचारी में इज़ाफ़ा कर देते है ताकि उन्हें ज़्यादा पैसे मिल जाये।

इरशाद ए नबवी (ﷺ) है, "जिसने लोगों से उनका माल ज़्यादा जमा करने की नीयत से मांगा वो आग के अंगारे  मांग रहा है,चाहे कम मांगे या ज़्यादा।" [सहीह मुस्लिम 2399]

जबकि सूरह तौबा आयत 60 के मुताबिक फक़ीर से मुराद वह शख्स है जो अपनी रोज़ी-रोटी के लिए दूसरे की मदद का मोहताज हो। यह लफ़्ज़ तमाम हाजतमन्दों के लिए आम है। ऐसे लोग किसी जिस्मानी नुक़्स या बुढ़ापे की वजह से ज़िंदगी भर के लिए मोहताज हो गए हो या किसी आरज़ी (temporary) सबब से मदद के मोहताज हो। अगर उन्हें सहारा मिल जाए तो आगे चलकर खुद अपने पांव पर खड़े हो सकते हैं। मिसाल के तौर पर यतीम बच्चे,  बेवा औरतें, बेरोज़गार लोग और वह लोग जो वक़्ती हादसे के शिकार हो गए हो।


मिस्कीन:

अब हम बात करते है असल ज़रूरतमन्द यानि मिस्कीन की, मसाकीन (मिस्कीन की जमा) वह लोग हैं जो आम हाजतमन्दों के मुकाबले ज़्यादा ख़स्ताहाल हो। नबी ﷺ ने इस लफ़्ज़ की तशरीह करते हुए खासतौर पर ऐसे लोगों को मुस्तहिक़ इमदाद ठहराया है जो अपनी ज़रूरत के मुताबिक ज़राए (resources) ना पाते हो और सख्त तंगहाल हो मगर ना तो उनकी खुद्दारी किसी के आगे हाथ फैलाने में इजाज़त देती हो और ना ही उनकी ज़ाहिरी  पोज़ीशन ऐसी हो कि कोई उन्हें हाज़िरमंद समझकर उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाए।

रसूल अल्लाह ﷺ ने फरमाया, “मिस्कीन (गरीब) वो नहीं जिसे एक दो लुक़मे दर-दर फिराएँ। मिस्कीन तो वो है जिसके पास माल नहीं। लेकिन उसे सवाल से शर्म आती है और वो लोगों से चिमट कर नहीं माँगता (मिस्कीन वो जो कमाए मगर जितना ज़रूरत न पा सके)।” [सहीह बुखारी : 1476]

क़ुरआन और हदीसो में मिस्कीन की मदद और खाना खिलाने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। ऐसे सफ़ेदपोश अपनी मेहनत से काम करते है। बार-बार किसी के आगे हाथ नही फैलाते पर कभी कुछ मुश्किले इतनी ज़ोर-आज़मा होती है कि इन्हें मदद मांगनी पड़ जाती है और ये क़र्ज़ मांगते हैं। जबकि हमे अपना किरदार ऐसा बनाना चाहिए कि हम खुद ढूंढे कि किसे मदद की ज़रूरत है, उसके बिन कहे हम उसकी ऐसे मदद करदे कि उसका ज़मीर भी महफूज़ रहे और उसका मसला भी हल हो जाये।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया, "ऊपर वाला हाथ नीचे वाले हाथ से बेहतर है और पहले उन्हें दो जो तुम्हारे बाल-बच्चे और अज़ीज़ हैं और बेहतरीन सदक़ा वो है जिसे देकर आदमी मालदार रहे और जो कोई सवाल से बचना चाहेगा उसे अल्लाह तआला भी महफ़ूज़ रखता है और जो दूसरों (के माल) से बे-नियाज़ रहता है  उसे अल्लाह तआला बे-नियाज़ ही बना देता है।" [सहीह बुख़ारी 1427,1428]


तो क्या हम बेहिस हो जाये?

जिसके पास पैसे नही है, कपड़े नही है, खाने का कुछ ज़रिया नही है, रहने को छत भी नही है। भला हम ऐसे इंसान की मदद करने से क्यों रुके?

ये सवाल अक्सर मन में उठता है और उठना भी चाहिए क्योंकि इंसान होने के नाते पता चलना चाहिए कि हम अपने आस-पास के लोगो की फिक्र लिए हुए है, हम ज़िंदा है। 

तो बात करते है सवाल पर, एक इंसान जिसके पास कुछ नही है, हम उसको एक दिन, तीन दिन या बहुत ज़्यादा हफ्ता भर में एक या दो वक्त का खाना खिला सकते है। हम कुछ कपड़े उसे दे सकते है, जो हो सकता है वो काफी समय तक इस्तेमाल करले। हम 10-100 रुपये उसे दे सकते है। 

मगर, इसके बाद क्या? 

क्या उसकी हालत सुधर जाएगी? 

क्या वो वैसे जी सकेंगा जैसे एक नॉर्मल व्यक्ति जीता है?

नही, वो कुछ महीने बाद फिर भीक मांगेगा क्योंकि उसे कुछ पैसे दिए गये थे। उसे वो सोच नही दी गई थी कि अपनी मेहनत से कमाओ। उसे हुनर नही दिया गया था जिससे वो अपना खर्चा उठा ले।

नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया, "अगर कोई  शख्स लकड़ियों का गट्ठा लाए फिर उसे बेचे और इस तरह अल्लाह ताला उसकी आबरू महफूज़ रखें तो यह उससे बेहतर है कि वह लोगों के सामने हाथ फैलाए और (भीख) उसे दी जाए या ना दी जाए इसकी भी कोई उम्मीद ना हो।" [सहीह बुख़ारी 2373]

असल मे मुझे ऐसा लगता है कि हम भिखारी की हालत पर तरस खाते है वही अगर हम इस बात पर तरस खाये कि ये सारी जिंदगी यूँ ही रहेंगा, हमेशा। तो हम कोशिश करेंगे कि उसे पैसो की जगह कुछ ऐसा काम दे जो वो कर के इज़्ज़त वाली ज़िन्दगी गुज़ारे। हम उसे भला रास्ता दिखाए,जिसपर चल कर वो कामयाब हो।

तिर्मिज़ी की हदीस 2670 में है कि नेकी (भलाई) की राह बताने वाला, नेकी करने वाले की तरह है।

जो लोग भीख मांगते है, उनमे मर्दों के मुकाबले औरतों और बच्चों की ज़िंदगी बहुत दयनीय होती है। ऐसीऔरतें जो भीख मांगती है, मदद या पैसे के नाम पर उनका शारीरिक शोषण किया जाता है। बच्चों को भूखा रखा जाता है ताकि वो कमज़ोर दिखे और उनकी सेहत में गिरावट आ जाये। इस वजह से लोग तरस खा कर पैसे दें।

भिखारियों के लिए बहुत सख्त वईद हदीस में बयान हुई है।

नबी ﷺ का इरशाद है, "तुम में से किसी शख्स लोगों से भीख मांगने मे चिमटा रहता है यहां तक कि वह अल्लाह से मिलेगा तो उसके चेहरे पर गोश्त का एक टुकड़ा भी ना होगा।" [सहीह मुस्लिम 1040c]


आखिर क्यों मदद न करे इनकी?

आज के वक़्त में भीख मांगना एक प्रोफेशन (profession) बन गया है,इन भिखारियों  की आड़ में बहुत से लोग ऐसे भी होते है जो अवैध (illegal) काम करते है। जैसे: बाल तस्करी, महिलाओं का अपहरण, बाहर के देशों से नशीले पदार्थ का लेन-देन। और इन सब चीज़ों को युवा पीढ़ी तक पहुचाना।

हम सभी ये सोच कर मदद करते है इनकी ताकि ये कुछ खा-पी सके। जबकि इनकी ज़िन्दगी ऐसी ही रहेंगी, जब तक इनकी सोच ना बदले। बहुत लोग ऐसे भी है जो बदलना चाहते है, इस काम को छोड़ना चाहते है पर जो लोग इनके ऊपर होते है (माफ़िया) इन्हें बागी बोल कर मार देते है। या फिर उन्हें डरा-धमका कर इसी काम को करने के लिए कहते है।

हम नही जानते कि किस के पीछे कौन है? हम सोचते है, "अरे पांच रुपये में क्या हो जाएगा?" पर थोड़ा ग़ौर करे ऐसे ही पांच के सिक्के उसे ओर लोग भी देंगे, कोई ज़्यादा ही मेहरबान 10 रुपये दे देंगा। तो उसके पास ज़्यादा रुपये हो जाएंगे,वो ये पैसे अपने मालिक को देंगा, इन्ही से उनका मालिक हमारी युवा पीढ़ी को भटकाएगा, हमारे बच्चों की और महिलाओं की तस्करी करेंगा, यही पैसे जो हमने किसी को तरस खा कर दिए वही पैसे हमारा भविष्य दयनीय बना देगा।


क्या सब भिखारियों के पीछे माफिया है?

कुछ ऐसे लोग होते है जिनके पीछे माफिया नही बल्कि उनकी आरामी और आसानी वाली सोच शामिल होती है कि हमें बस एक जगह बैठना है और कोई ना कोई तो पैसे दे देगा। कोई तो मदद कर देगा हालांकि ये मदद नही है ये तो ऐसा है कि कोई खाई के किनारे पर खड़ा हो और उसे धक्का दे दिया जाए। अच्छे भले लोग होते है फिर भी खुद से कमाने के बारे मे नही सोचते।

हज्जातुल विदा के मौक़े पर दो अफ़राद नबी करीम ﷺ की खिदमत में हाज़िर हुए। आप ﷺ उस वक़्त सदक़ात तक़सीम फरमा रहे थे, उन दोनों ने भी मांग रसूल अल्लाह ﷺ ने एक नज़र दोनों पर डाली, देखा कि तन्दुरुस्त,  तवाना और कमाने के लायक है। आप ﷺ ने इरशाद फ़रमाया, "अगर मैं चाहूँ तो इस में से तुम दोनों को भी दे सकता हूँ, लेकिन सुन लो! कि इस में किसी मालदार और कमाने के लायक तन्दुरुस्त-ओ-तवाना का कोई हिस्सा नही।" [अबू दाऊद :1633]


मज़हबी भिखारी:

कुछ लोग ऐसे होते है जो अपनी दीनी पढ़ाई मुकम्मल करते है। वो हिन्दू हो या मुस्लिम उन्हें दीन की बाते सिखाई जाती है पर उन्हें ये नही बताया जाता कि इस का इस्तेमाल दुनिया मे कैसे होगा। मजबूरी के तहत वो लोग अपने आप को मज़हबी पहनावे में ढालते है और घर-घर जाकर चंदा इखट्टा करते है। ऐसे लोगो को हम पैसे दे देते है। जबकि हम उन्हें नही जानते पर अपनी ही बस्ती के मस्जिद के इमाम से बहस करते है कि क्यों पैसे दे? ये तो दीन का काम है हमारे नबी तो भूखे रहे है, उन्होंने तो किसी से पैसे नही मांगे। (अल्लाह हमे बचाये गुमराही से)


बुज़ुर्ग महिला और मर्द:

ये लोग भी माफिया जैसे गरोह के हिस्सेदार होते है, पर क्या हमने सोचा है कि ये वहां तक पहुँचते कैसे है? जो माँ-बाप सारी जिंदगी अपनी औलाद को कलेजे से लगा कर रखते है जब वो बच्चा बड़ा होता है और माँ-बाप की उम्र ढल जाती है, वो किसी काम के नही रहते तो उन्हें ओल्ड एज होम में ले जाकर पटक दिया जाता है। कोई उनकी ख़बरगीरी नही करता कि उन्हें खाना मिल रहा है? कैसा स्वाद है? या वो वहां है भी या उनको बेचा जा चुका है। अब वो लोग कही और किसी के घर मे झाड़ू पोछा कर रहे होंगे या फिर क्या मालूम घर-घर जा कर पैसे इकट्ठे करने मे लगे हों। बहुत से तो ऐसे मामले रहे है कि बेटा अपनी माँ को रेलवे स्टेशन पर छोड़ कर चला गया। और वो माँ इन्तिज़ार कर रही है कि अब आएगा अब आएगा। पर कब तक वो खुद को दूसरे के आगे हाथ फ़ैलाने से रोक सकती है?

बुज़ुर्ग मर्द का हाल भी इससे जुदा नही है। वो बीमार हुए तो कौन उनकी तीमारदारी करेंगा? कौन ध्यान रखेंगा? चलो वृद्ध आश्रम छोड़ आए।

क़ुरआन की सूरह बकरा की आयत 83 में है:

وَ بِالۡوَالِدَیۡنِ اِحۡسَانًا وَّ ذِی ‌الۡقُرۡبٰی وَ الۡیَتٰمٰی وَ الۡمَسٰکِیۡنِ وَ قُوۡلُوۡا لِلنَّاسِ حُسۡنًا وَّ اَقِیۡمُوا الصَّلٰوۃَ وَ اٰتُوا الزَّکٰوۃَ ؕ

"और हुस्ने सलूक करो वालिदैन, रिश्तेदारों, यतीमो, मिस्कीनों के साथ, और लोगो से अहसान तरीके से बात करो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात अदा करो।"  


आपकी दीनी बहन 
सबिहा 

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