दहेज़ क्यों और कब तक?
बारात दरवाजे पर आ गई सायमा अपने हाथों में लगी मेंहदी को उलट पलट कर देख रही थी, कितना गहरा रंग आया है वॉव किसी फ्रेंड ने शरारत की तो सायमा झेप सी गई।
एक तरफ़ नई जिंदगी की शुरुआत की खुशी दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था जीवन साथी से मिलने का उतावलापन और दूसरी तरफ नए घर के माहौल में खुद ढालने का खौफ।
सायमा बेड से उठ कर खिड़की पर आ गई, नज़रें खिड़की से बाहर कुछ और ही टटोलने लगी। अचानक उसने अपने बाबा पर नज़र डाला जो बारात के आव भगत में लगा हुआ था।
सायमा अन्दर से तडप उठी बाप के चेहरे पर झूरियां आ गई थी, कमर झुक गई थी दहेज़ की रकम इक्कठा करते करते समय से पहले ही जैसे बुढ़ापा ने आ घेरा हो, ससुराल वालों के डिमांड पूरी करते करते उसके बाप का पूरा पूरा कर्ज़ में डूब गया। आंखें भर आईं और वो मासूम सा चेहरा लिय बचपन के ख्यालों में खो गई।
कितनी जल्दी 20 साल बीत गया। जब वो छोटी सी थी अपने बाबा की उंगली पकड़ कर चलना सीखा था, बाप कितना कुछ करता है न अपने औलाद की खुशी के लिए, छोटी से बड़ी जरुरत को पूरा करना, उसकी हर ज़िद मान लेना, मेहनत मशक्कत कर के अपने बच्चों की परवरिस करना और फिर बेटियों के लिए और भी दोगुना मशक्कत पाल पोश कर अपने जिगर के टुकड़े को किसी और को सौंप देना इस से बड़ा त्याग क्या हो सकता है फिर भी,
औलाद कितनी आसनी से कह देती है आप ने मेरे लिय किया क्या है?
और बेगैरत ससुराल वाले कहते हैं तेरे बाप ने दिया क्या है?
हमारे बनावटी समाज में इंसान, इंसान का दुश्मन होता जा रहा है। दहेज देना लेना, दूसरों पर जुल्म करना, ताने मरना ये इस्लाम की तालीम नहीं है। इस्लाम में दहेज जैसी कोई रस्म नहीं है ये तो हमारे मुल्क में गैर मुस्लिम कौ़म के ज़रिए फैलाई गई बीमारी है जिसने मुसलमानों को भी अपनी चपेट में ले लिया और रस्म के तौर पर आम कर दिया। अमीर और मिडिल क्लास फॅमिली के लिए कोई मसला नहीं है पर गरीब के दिल का हाल कौन पूछता है। अमीर हर रोज़ एक रस्म बढ़ाता है और गरीब उसे पूरी करने के लिए खून और पसीना बहाता है।
फ़िरोज़ा
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