Allah se talluq kaise qayam karein?

Allah se talluq kaise qayam karein?


अल्लाह से ताल्लुक़

अल्लाह से ताल्लुक़ की अहमियत

सबसे पहली चीज़ जिसके बारे में हमें नाबियों और खुलफा ए राशिदीन और उम्मत के नेक लोगों ने हमें क़दम क़दम पर बताया है वह ये कि हम अल्लाह पाक से डरे और उसकी मोहब्बत दिल में बिठाएं और उसके साथ अपना ताल्लुक़ कायम करें।

अल्लाह से ताल्लुक़ मुकद्दम और सबसे ऊपर है इबादत में अल्लाह से दिल का लगाव मुकद्दम है अखलाक में अल्लाह का डर मुकद्दम है।                                          

कुल मिलाकर सारी बात ये है कि हमें सुबह-शाम हर वक्त इस बात को याद रखना है कि कहीं हम अल्लाह से दूरी तो नही बना रहे हमें अल्लाह से अपना ताल्लुक़ मज़बूत करना है। और इस ताल्लुक़ में हमें हर रोज़ आगे बढ़ाना है। कोई ऐसा काम नहीं करना जिसकी वजह से अल्लाह से इस ताल्लुक़ में दूरी बने क्योंकि असली और हक़ीक़ी ताल्लुक़ सिर्फ यही है।


अल्लाह से ताल्लुक़ का मतलब

अल्लाह से ताल्लुक़ का मतलब जैसा कि क़ुरान पाक में बताया गया है, यह है की आदमी का जीना और मरना, उसकी इबादत और कुरबानिया सबकी सब अल्लाह के लिए हों।

"बेशक मेरी नमाज़ मेरी कुरबानी मेरा जीना और मेरा मरना अल्लाह के लिए है जो सारे जहां का रब है।" [क़ुरान  6:162]

हमें पूरी तरह यक्सु होकर अल्लाह की ख़ालिस बंदगी करनी है।  

"हमें हुक्म इसी बात का दिया गया था अल्लाह की इबादत करें दीन को उसी के लिए खालिस करें यक्सू होकर।" [क़ुरान 98:5]

हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अलग अलग मौकों पर इस ताल्लुक़ की तशरीह कर दी है और इसके मतलब-मानी खुलकर सामने आ गए है कोई चीज़ छुपी नही रही है। हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वा सल्लम की हिदायतों पर गौर करने से मालूम होता है कि अल्लाह से ताल्लुक़ के असल मानी क्या है।

  • खुले और छुपे काम में अल्लाह का डर महसूस करना।
  • अपने ज़राए और संसाधन से के बजाए अल्लाह पर पुख्ता यकीन रखना।
  • इंसान लोगों को राज़ी करने के लिए कभी अपने अल्लाह को नाराज़ ना करे।


अल्लाह से ताल्लुक बढ़ाने का तरीक़ा

इसकी सिर्फ एक यही सूरत है कि इंसान अल्लाह के एक होने पर पुख़्ता यक़ीन रखे अपना ख़ालिक़, मालिक और हाकिम सिर्फ अल्लाह को तस्लीम करे। दिल और दिमाग को शिर्क से पाक रखे। इस ताल्लुक़ को बढ़ाने और परवान चढ़ाने के दो तरीक़े है-

1. सोचना-समझना
2. अमल का तरीक़ा

1. सोचना-समझना: 

सोचने-समझने के तरीक़े से अल्लाह से ताल्लुक़ बढ़ाने का तरीक़ा यह कि कुरआन मजीद और हदीस को तफसील के साथ समझा जाए। सिर्फ समझना ही काफ़ी नही है बल्कि उस पर अमल भी होना चाहिए। इन रिश्तों को ठीक ठीक एहसास जब ही हो सकता है जब हम कुरआन मजीद को बार बार पढ़े और समझकर पढ़े और अपने हालात का जायज़ा लेते रहे। 

  • एक रिश्ता हमारे और अल्लाह के बीच है हम बंदे है और वह माबूद है हमारा।  
  • दूसरा ज़मीन पर हमख़लीफ़ा है उसने अनगिनत अमानत हमारे सुपुर्द करदी है। 
  • तीसरा रिश्ता यह है कि हम ईमान लाकर खरीद फरोख्त का मुहाइदा कर चुके हैं जिसकी मुताबिक हमने अपनी जान माल बेची है और उसने जन्नत के वादे पर खरीदी है।  
  • चौथा रिश्ता यह है कि हम उसके सामने जवाबदेह हैं।  

बस इन्हीं रिश्तों को समझने महसूस करने और याद रखने और उसके तकाज़े पूरे करने से अल्लाह पाक हमारे ताल्लुक़ के बढ़ने और करीबतर होने का दारोमदार है।  

2. अमल का तरीक़ा:

i. नमाज़

नमाज़ न सिर्फ़ फ़र्ज़ और सुन्नत बल्कि जितनी पढ़ सकते हों नफ्ले भी पढ़ें। मगर यह याद रखिए कि नफ्लों को ज़्यादा से ज़्यादा छिपकर अदा करना चाहिए, ताकि अल्लाह से आपका निज़ी ताल्लुक फले-फूले और खुलूस की सिफ़त आपमें पैदा हो। नफ़्ल पढ़ने का और खास तौर से तहज्जुद पढ़ने का एलान और इज़हार कभी-कभी एक खतरनाक किस्म का गुरूर इनसान में पैदा कर देता है, जो मोमिन के नफ़्स के लिए बड़ा ही तबाहकुन है और यही अंदेशे दूसरी तरह के नफ़्लों, सदकों और ज़िक्रों के इज़हार और एलान में भी पाए जाते है।

ii. अल्लाह का ज़िक्र

अल्लाह का ज़िक्र सुबह शाम हर वक्त हमारी ज़ुबान पर रहना ज़रूरी है

ज़िक्र-अज़कार और दुआओं में से जितनी भी याद कर सकें कर लें। मगर अलफाज़ के साथ उनके मानी भी दिल और दिमाग़ में बैठा लीजिए और उनके मानी और मतलब को ज़ेहन में हाज़िर रखने के साथ-साथ उनको सुबह शाम पढ़ते रहा कीजिए। यह अल्लाह की याद ताज़ा रखने और अल्लाह की तरफ दिल की तवज्जोह जमाए रखने का एक बहुत ही असरदार ज़रिया है 

iii. रोज़ा

रोज़ा न सिर्फ फ़र्ज बल्कि नफ्ल भी रखें। नफ़्ल रोज़ों की बेहतरीन और सबसे मुनासिव सूरत यह है कि हर महीने तीन दिन के रोज़े पाबंदी से रखें और उन दिनों में खास तौर से तक़वा और परहेज़गारी की उस कैफियत को हासिल करने की कोशिश की जाए जिसे कुरआन मजीद रोज़े की असल खासियत और मक़सद बताता है।

iv. अल्लाह की राह में खर्च करना

अल्लाह की राह में खर्च, न सिर्फ फ़र्ज़ बल्कि नफ़्ल भी जहाँ तक आपकी गुंजाइश और सामर्थ्य हो, करें। इस बारे में यह बात अच्छी तरह समझ लीजिए कि असल चीज़ माल की वह मिकदार नहीं है जो आप खुदा की राह में खर्च करते हैं, बल्कि असल चीज़ वह कुरबानी है जो अल्लाह की खातिर आपने की है। एक ग़रीब आदमी अगर अपना पेट काटकर खुदा की राह में एक पैसा खर्च करे तो वह अल्लाह के यहाँ उस एक हजार रुपये से ज़्यादा कीमती है जो किसी मालदार ने अपने ऐश व आराम का दसवाँ या बीसवाँ हिस्सा कुरबान करके दिया है। इसके साथ यह भी आपको मालूम होना चाहिए कि सदका उन सबसे अहम ज़रियों में से है जो नफ़्स की पाकी के लिए अल्लाह और उसके रसूल ने बताए है। आप इसके असरात का तजुर्बा करके इस तरह देख सकते हैं कि एक बार अगर आपसे कोई ग़लती हो जाए तो आप सिर्फ नादिम होने और तौबा करने पर बस करें और दूसरी बार अगर कोई भूल या ग़लती हो जाए तो आप तौबा के साथ खुदा की राह में कुछ सदक़ा भी करें। दोनों हालतों का मुकाबला करके आप खुद अंदाज़ा कर लेंगे कि तौबा के साथ साथ सदका इनसान के नफ़्स को ज्यादा पाक और बुरे रुझानों के मुक़ाबले के लिए ज़्यादा असरदार साबित होता है। 


अल्लाह से ताल्लुक़ को नापने का पैमाना

अब यह सवाल बाकी रह जाता है कि हम कैसे यह मालूम करें कि अल्लाह के साथ हमारा ताल्लुक कितना है और हमें कैसे पता चले कि वह बढ़ रहा है या घट रहा है? इसे मालूम करने के लिए आपको ख्वाब की बशारतों, कश्फ़ और करामात के ज़ाहिर होने और अँधेरी कोठरी में नूर के नज़र आने का इंतिज़ार करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इस ताल्लुक़ को नापने का पैमाना तो अल्लाह ने हर इनसान के दिल ही में रख दिया है। आप बेदारी की हालत में और दिन की रोशनी में हर वक़्त इसको नापकर देख सकते हैं। अपनी ज़िदगी का, अपने वक़्त का, अपनी दौड़-धूप का और अपने जज़बात का जाइज़ा लीजिए। अपना हिसाब आप लेकर देखिए कि ईमान लाकर अल्लाह से (खरीदो फ़रोख्त) का जो समझौता आप कर चुके हैं उसे आप कहाँ तक निभा रहे हैं? 

अल्लाह की अमानतों में आपका इख़्तियार एक अमीन और अमानतदार ही का-सा इख़्तियार है या कुछ ख़यानत भी पाई जाती है। आपके औक़ात और मेहनतों और क़ाबलियतों और माल-असबाब का कितना हिस्सा खुदा के काम में लग रहा है और कितना दूसरे कामों में? 

आपके अपने फ़ायदे और जज़बात पर चोट पड़े तो आपके गुस्से और बेचैनी का क्या हाल होता है और जब खुदा के मुक़ाबले में बग़ावत हो रही हो तो उसे देखकर आपके दिल की कुढ़न और आपके ग़ज़ब और बेचैनी की क्या कैफ़ियत रहती है? 

ये और इसी तरह के दूसरे बहुत-से सवाल हैं जो आप खुद अपने नफ़्स से कर सकते हैं और उसका जवाब लेकर हर दिन मालूम कर सकते हैं कि अल्लाह से आपका कोई ताल्लुक़ है या नहीं, और है तो कितना है और इसमें कमी हो रही है या इज़ाफ़ा हो रहा है। रहीं बशारतें और कश्फ़ व करामात और अनवार व तजल्लियात तो आप उनको पा लेने की फ़िक्र में न पड़ें। सच्ची बात यह है कि इस मादी दुनिया के धोखा देनेवाले मंज़रों में तौहीद की हक़ीक़त को पा लेने से बड़ा कोई कश्फ़ नहीं है। शैतान और उसकी संतान के दिलाए हुए डरावों और लालचों के मुक़ाबले में सही रास्ते पर क़ायम रहने से बड़ी कोई करामत नहीं है। कुन, फ़िस्क़ और गुमराही के अँधेरों में हक़ की रोशनी देखने और उसकी पैरवी करने से बड़ा कोई अनवार का मुशाहिदा नहीं है और मोमिन को अगर कोई सबसे बड़ी बशारत मिल सकती है तो वह अल्लाह को रब मानकर उसपर जम जाने और साबित क़दमी के साथ उसपर चलने से मिलती है।


आपकी दीनी बहन
उज़मा

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