Rajab ke Kunde ki haqeeqat

Rajab ke Kunde ki haqeeqat | islam | musalman


रजब के कूंडे की हक़ीक़त

आज से लगभग 35, 40 वर्ष से पहले कूंडों की बड़ी अहमियत थी, घर के अनेक सामान को रखने में कूंडों का बड़ा योगदान था लेकिन तरक़्क़ी के इस दौर में जहां पुरानी चीज़ों के आसार मिट गए उनका शिकार कूंडा भी हो गया। एक तो घर घर न रहे बल्कि डरबे हो गए सागर ख़य्यामी के बक़ौल कि "दूल्हा दुल्हन तो मेज़ पर बच्चे दराज़ में" दूसरे पक्के मकानों में ये कच्चे सामान कौन रखे का तस्व्वुर आम हो गया, तीसरे रोज़ाना एक से एक चमकीले और डिज़ाइन वाले बर्तनों के सामने मिटटी के खुरदुरे बर्तनों को कौन पूछे, चौथे मिटटी के बर्तन के इस्तेमाल में लोग हतक महसूस करने लगे हालाँकि अब भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िला सम्भल में शादियों में बतौर तबर्रुक प्रयोग किया जाता है और पूर्वी उत्तर प्रदेश में घरों में नहीं बल्कि चायखानों पर चाय का स्वाद लेने के लिए। लेकिन मिटटी के बर्तनों से इतनी दुरी के बावजूद अब भी एक त्यौहार मनाया जाता है जो कूंडे के साथ मख़्सूस है। यह रजब के महीने में होने के कारण "रजब के कूंडे" के नाम से जाना जाता है।


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कूंडे का तरीक़ा


कूंडे के विषय में पहले यह मालूम किया जाना चाहिए कि यह कैसे मनाया जाता है यानि कूंडे भरने की विधि क्या है। कूंडे भरने हेतु रजब के महीने की 22 तारीख को मैदा, दूध, चीनी और विभिन्न मेवाजात के विशेष अनुपात से मख़्सूस पूरियाँ बनाई जाती हैं, हलवा तैयार किया जाता है और उस पर एक मंज़ूम (poetry) किताब पढ़ी जाती है, उसके बाद इमाम जाफ़र सादिक़ की फ़ातिहा दिलाई जाती है फिर पड़ोसी, संबंधी और दोस्त मित्रों को एक एक दो दो पूरियाँ खिलाई जाती हैं। कुछ वर्ष पहले जिन दावती मेहमानों को आमंत्रित किया जाता था। इनमें से प्रत्येक को निर्देशित कर दिया जाता था कि यह कूंडे चूँकि घर के अंदर पकते और तैयार होते हैं इसी छत के नीचे उन्हें खाया जाता है इसलिए कूंडे की किसी चीज़ को बाहर नहीं ले जाया जा सकता, यहाँ तक कि मौलवी साहब के घर भी कुछ नहीं आ सकता था। क्योंकि कूंडे की पूरियाँ और हलवा आदि को वहीँ समाप्त करना ज़रूरी था। फिर मौलवी साहब ने यह आदेश दिया कि इस हलवा पूरी को घर से बाहर ले जाना चाहें तो कोई हर्ज नहीं, तत्पश्चात अब यह सामान घर से बाहर भी खाया जाने लगा लेकिन कुछ क्षेत्रों में अभी भी केवल उसी छत के नीचे खाना अनिवार्य समझा जाता है।


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कूंडे भरने की बुनियाद


अब यह पता लगाना अति अनिवार्य हो गया है कि उन्हें इस तरह की दावत का आदेश किसने दिया है?। इन कूंडों की शरई हैसियत क्या है?। कूंडे का आधार कुरआन व हदीस में किस सिद्धांत पर है और यह बात कहां तक ​​सही है कि कूंडे दिलाने से तमाम दुख दूर हो जाते हैं।

कूंडे भरने के विषय में तमाम अहादीस के ज़खीरे में कहीं भी कोई सबूत नहीं मिलता न उस का आधार क़ुरआन के किसी आदेश पर है और न प्यारे रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के किसी फ़रमान में और न उनके शुद्ध व पवित्र जीवन में कूंडे भरने का कोई सबूत मिलता है। न्यायशास्त्र (फिक़्ह) की किताबों में भी इसका कोई उल्लेख (तज़किरा) नहीं है। इसका आधार एक भ्रामक फ़र्ज़ी कहानी है जो "दास्ताने अजीब" के नाम से प्रसिद्द है और इसे शिया समुदाय के इमामिया पंथ (फ़िरके) के एक कहानीकार ने नज़्म बतौर मसनवी (ऐतिहासिक कविता) लिखी थी और उसे इमाम जाफ़र सादिक़ की करामत बताया था। उसने दास्ताने अजीब को इस तरह धार्मिक रंग में पेश किया कि यह बुरी रस्म धीरे धीरे दूसरे देशों के लोगों में भी फैल गई।


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दास्ताने अजीब का ख़ुलासा (सारांश)


हक़ीक़त (तथ्य) तक पहुँचने के लिए मनघड़त कहानी का सारांश भी पेश करना ज़रूरी है जिसपर कि कूंडा भराई की रस्म की बुनियाद रखी गई है।

यह उस समय की बात है जब इमाम जाफ़र सादिक़ रहमतुल्लाह अलैहि जीवित थे। उनके दौर में मदीना में एक लकड़हारा रहता था। इस बेचारे की औलाद ज़्यादा थी और आय कम, उसका व्यवसाय (ज़रिआ ए मआश) बस इतना ही था कि जंगल में जाता लकड़ी काटता और बाज़ार में ले जाकर बेच देता जो थोड़ी बहुत आमदनी होती उससे बड़ी मुश्किल से गुज़र बसर होता। भूखमरी और तंगदस्ती की ज़िन्दगी से वह थक गया था चुनांचे किसी दूसरे देश में जाने के बात उसके दिमाग़ में आई और चल पड़ा। इस तरह घर-बार छोड़कर प्रदेशी हो गया। लेकिन भाग्य ने साथ नहीं दिया वहाँ भूख और तंगदस्ती के बावजूद इसी हाल में उसने बारह साल गुज़ारे। प्रदेश में घर भी याद आता था, बीवी-बच्चे भी लेकिन शर्मसार था कि इन बारह साल के दौरान घर वालों को कुछ नहीं भेजा शर्मिंदगी और लज्जा से खाली हाथ वापस जाना नहीं चाहता था कि लोग क्या कहेंगे।

उधर लकड़हारे के चले जाने से घर वालों का एकमात्र सहारा उनसे छिन गया आख़िर लकड़हारे की पत्नी वज़ीर (मंत्री) की पत्नी की ख़ादिमा (दासी) बन गई. उसके घर झाड़ू बर्तन करने से कुछ रुपये पैसे मिल जाते थे फिर एक दिन ऐसा हुआ कि लकड़हारे की पत्नी इसी मंत्री के बेगम के महल के आंगन में झाड़ू दे रही थी कि अचानक वहाँ से इमाम जाफ़र सादिक़ का गुज़र हुआ जब वह इस महल के आंगन में पहुंचे तो अचानक रुक गए और अपने अक़ीदतमंदों से पूछा कि यह कौन सा महीना है और आज कौन सी तारीख़ है। अक़ीदतमंदों में से एक बढ़ा और दस्तबस्ता (हाथ बांध कर) अर्ज़ किया, हुज़ूर यह रजब का महीना है और आज रजब की 22 तारीख़ है .फिर पूछा क्या तुम्हें पता है कि रजब की 22 तारीख़ की क्या फ़ज़ीलत है? उस अक़ीदतमंद ने जवाब दिया हुज़ूर ही बेहतर जानते होंगें। इमाम साहब ने कहा, ऐ मेरे ख़ास मुरीदो (चेलो) आओ फिर सुन लो इस दिन की फ़ज़ीलत यह है कि अगर कोई व्यक्ति मुसीबत और परेशानी में गिरफ़्तार हो तो उसे चाहिए कि वह रजब की 22 तारीख़ को मेरे नाम के कूंडे भरे। इसका तरीक़ा यह होगा कि वह बाज़ार से नए कोरे कूंडे ख़रीद कर लाये उन्हें घी में तली हुई मीठी ख़स्ता पूरियों से भरे, फिर चादर बिछाकर कूंडों को इस चादर पर रखे और पूरे एतेक़ाद (विश्वास) के साथ मेरा ख़त्म दिलाए फिर मेरा ही वसीला (स्रोत) पकड़कर अल्लाह से दुआ करे तो उसकी हर हाजत और हर मुश्किल हल हो जाएगी और फिर इस तरह की प्रक्रिया से किसी की मुराद पूरी न हो तो वह क़यामत (न्याय) के दिन मेरा दामन पकड़ सकता है और मुझसे उसकी बाज़पुरस (लेखाजोखा) कर सकता है हज़रत ने यह सब कुछ कहा और फिर अपने साथियों के साथ आगे बढ़ गए।

लकड़हारे की परीशानहाल पत्नी जो वहाँ झाड़ू दे रही थी, उसे जब हज़रत जाफ़र सादिक़ से बेरोजगारी और मुसीबतों से छुटकारे का यह गुर मालूम हुआ तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। सभी काम छोड़ कर उसने हज़रत जाफ़र के कूंडों की व्यवस्था की और दुआ की ऐ अल्लाह, इमाम साहब के सदक़े मेरी सभी मुसीबतें दूर कर दे, मेरा पति ख़ैरियत से घर लौट आए और अपने साथ कुछ धन भी लाए।

उसने कूंडों की ख़त्म दिलायी और फ़ारिग़ हुई। उधर लकड़हारा जो12 साल से तंगदस्ती का ज़माना गुज़ार रहा था लेकिन हज़रत जाफ़र की करामत देखिए जैसे ही मदीने में लकड़हारे की पत्नी ने कूंडे भरे वैसे ही लकड़हारे के परदेस में दिन फिर गए। हुआ यूँ कि एक दिन लकड़हारा जंगल में लकड़ी काट रहा था कि अचानक कुल्हाड़ी गिरने से पृथ्वी पर धमाका सा हुआ इससे लकड़हारे ने अनुमान लगाया कि यहां की ज़मीन अंदर से ख़ाली है वह नीचे उतरा ज़मीन खोदना शुरू कर दिया ज़्यादा देर नहीं गुज़री थी कि वहाँ एक शाही ख़ज़ाना मिल गया। ख़ज़ाने में ज़र जवाहर धन दोलत और सोना चांदी सभी कुछ था, अब उसने धीरे धीरे ख़ज़ाना घर ले जाना शुरू कर दिया। फिर एक दिन यह सब धन दौलत ऊंटों और घोड़ों पर लाद कर मदीना मुनव्वरा अपने मकान पर पहुँचा, घर पहुंचकर लकड़हारे ने वज़ीर के महल के सामने एक आलीशान महल का निर्माण कराया और नवाबों की तरह वहाँ रहना शुरू कर दिया। एक दिन अचानक वज़ीर की बेगम अपने महल के बालाख़ाने में चढ़ी तो सामने एक आलीशान और सुंदर महल देख कर चकित हो गई। अपनी ख़ादिमाओं से पूछा यह किसका मकान है? सबने एक ज़बान हो कर कहा, उस लकड़हारे का जिसकी पत्नी आपके घर झाड़ू दिया करती थी। यह सुनकर उसने एक ख़ादिमा को आदेश दिया कि मेरी नौकरानी को ज़रा बुलाकर तो लाओ। लकड़हारे की पत्नी आई उससे पूछा, अरे कल तक तो दो वक़्त की रोटी को तरसती थी, और आज यह ठाट बाठ, यह सब कैसे हुआ।

लकड़हारे की पत्नी ने इमाम जाफ़र सादिक़ के इशारे के अनुसार कूंडे भरने और बड़ा ख़ज़ाना हाथ लगने की दास्तान बयान कर दी। यह सुनकर मंत्री की पत्नी ने उसका मज़ाक उड़ाया और कहा, लगता है तेरा पति डाका डालकर माल ले आया है और कूंडे का नाम रख लिया है। वज़ीर की पत्नी ने जब कूंडे की अज़मत पर यकीन न किया तो पति पर ग़ैब से एक मुसीबत नाज़िल हुई उस पर देश की दौलत लूटने और भ्रष्टाचार (cruption) करने का आरोप लगाया गया और उसे मंत्रीपद से हटा कर देश से बाहर निकाल दिया गया। जो कल तक मंत्री था आज देश छोड़ कर जा रहा था। रास्ते में उसने एक ख़रबूज़ा ख़रीदा ताकि भूख लगने के समय खा सके। जिस दिन वह मंत्रिपद से हटाया गया उसी दिन शहज़ादा (राजकुमार) शिकार पर गया और शाम को घर न आया सलाहकारों में से किसी ने कहा, आलीजाह, हो सकता है कि मंत्रिपद से हटाये गए वज़ीर ने उसकी हत्या करवा दी हो। आदेश हुआ कि इस मंत्री को पकड़कर तत्काल दरबार में पेश किया जाए। उसने अभी आधा सफ़र तय किया था कि दोबारा गिरफ़्तार होकर राजा के सामने पेश हुआ, वज़ीर के हाथ में रूमाल में बंधा हुआ ख़रबूज़ा था। बादशाह ने पूछा है.यह क्या है? वज़ीर ने कहा हुज़ूर यह ख़रबूज़ा है। लेकिन जब रूमाल खोल कर देखा तो ख़रबूज़े के बजाय शहज़ादे का ख़ून में लुथड़ा हुआ सिर था। वज़ीर भी हैरान था कि यह ख़रबूज़ा राजकुमार कैसे बन गया। हुक्म हुआ कि इन दोनों को जेल भेज दिया जाए और सुबह उन्हें फांसी दे दी जाए। अब जेल में वज़ीर और उसकी पत्नी ने सोचा कि निश्चित रूप से हमसे कोई ग़लती हुई है जिसकी सज़ा हमें मिल रही है आख़िर वज़ीर की बेगम को याद आ गया कि काफ़ी दिन हुए इमाम जाफ़र के कूंडों के अक़ीदे पर विश्वास नहीं किया था फिर दोनों ने रो रोकर अपने गुनाहों (पाप) की माफ़ी मांगी और पक्का इरादा किया कि अगर इस मुसीबत से छुटकारा मिल जाए तो हम ज़रूर इमाम जाफ़र साहब के कूंडे भरेंगे। अब जैसे ही बेगम ने अक़ीदत से कूंडे भरने का इरादा किया कि हालात ने पलटा खाया राजा का खोया हुआ राजकुमार कूंडों की बरकत से सही सलामत वापस आ गया। राजा बाहूत ख़ुश हुआ तुरंत क़ैदियों को बुलाने का हुक्म दिया और रूमाल खोलकर देखा तो वहाँ राजकुमार के सिर के बजाय ख़रबूज़ा था। राजा ने हटाये गए मंत्री से पूछा, बता तो सही आख़िर मामला क्या है? वज़ीर ने कहा हुज़ूर, मेरी पत्नी ने कूंडों के अक़ीदे पर विश्वास नहीं किया था फिर लकड़हारे से लेकर पूरी दास्तान बयान कर दी। बादशाह बड़ा प्रभावित हुआ और वज़ीर को दोबारा मंत्रीपद पर बहाल कर दिया और ख़िलअते फ़ाख़िरा (शाही लिबास) से नवाज़ा। फिर तो शाही महलों से लेकर मंत्री महल तक बड़ी धूमधाम और एहतेमाम के साथ कूंडे भरने की यह रस्म अदा की गई और वज़ीर की बेगम तो तमाम ज़िन्दगी हर साल बड़ी अक़ीदत के साथ हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ के कूंडे भरती रही।

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दास्ताने अजीब पर समालोचना (तब्सिरह)


1, यह मनघड़ंत कहानी है 1906 में घड़ी गयी है।

2, इमाम जाफ़र सादिक़ रहमतुल्लाह अलैहि की जन्म तिथि 17 रबीउल अव्वल सन् 83 हिजरी जुमा के दिन है और मृत्यु 15 शव्वाल 148 हिजरी मदीने में ही हुई।

3, इमाम जाफ़र सादिक़ के आदेश पर कुंडे भरते ही तुरन्त लकड़हारे के हाथ ख़ज़ाने का लगना और वज़ीर की पत्नी के कूंडे को झुठलाने पर मंत्रिपद से हटाया जाना, देश निकाला होना, फिर गिरफ़्तार कर के लाया जाना, ख़रीदे हुए ख़रबूज़ का राजकुमार का ख़ून में लतपत सिर में बदल जाना और कूंडे भरने का इरादा करते ही ख़ून में लतपत सिर का दोबारा ख़रबूज़ हो जाना, वज़ीर को पुनः मंत्रिपद मिलना और फिर पूरे देश में कूंडॉ के भरे जाने की रस्म का मनाया जाना। यह सब अक़्ल से परे बातें हैं। दीन इतने फ़्रॉड पर आधारित नहीं होता।

4, कहानी में कहा गया है कि इमाम जाफ़र सादिक़ ने इस प्रकार अपने आदेश का पालन करने पर गारंटी और ज़िम्मेदारी के साथ दावा किया है कि अगर कूंडे भरने के बाद हाजत पूरी न हो तो क़यामत के दिन मेरा दामन पकड़ लेना। क्या इमाम जाफ़र सादिक़ की ज़बान से किसी ऐसी रस्म से संबंधित ऐसे शब्द निकल सकते हैं जो उनके पूर्वज इमाम बाक़र, इमाम सज्जाद, इमाम हुसैन, इमाम इमाम हसन और सैयदना अली बिन अबी तालिब रज़ि अल्लाहु अन्हु ने नहीं किया हो, ताजदारे मदीना अल्लाह के अंतिम दूत मुहम्मद सल्ललाहु अलैहि व सल्लम ने नहीं किया हो चारों ख़लीफ़ा और दीगर सहाबा रिज़्वानुल्लाह अलैहिम अजमईन ने भी नहीं किया हो।

5, (i) लकड़हारे की पत्नी बारह साल तक मंत्री की बेगम के यहाँ नौकरी करती रही। जब उसका पति अमीर होकर वापस लौटा तो पत्नी ने नौकरी छोड़ दी और मंत्री की पत्नी को नौकरी छोड़ने की ख़बर तक न हुई हालांकि जो इतने दिनों तक कहीं नौकरी कर रहा हो तो मालिक उसके घरेलू हालात से भी यक़ीनन वाक़िफ़ हो जाता है वज़ीर की पत्नी भी सब कुछ् जानती थी जैसा की महल बनने के बाद उसको बुला कर कहा की कल तक तू पेट भरने के लिए तरसती थी।

(ii) इतना शानदार महल अचानक बन कर तो तैयार नहीं हो गया होगा बल्कि इसे बनने में कई महीने लगे होंगे। एक या दो दिन की बात तो है नहीं लेकिन हैरत इस बात पर है कि मंत्री की पत्नी को तब पता चलता है जब वे इत्तेफ़ाकन बालाख़ाने पर जाती है हालांकि मोहल्ले या बस्ती में कोई मामूली सा निर्माण भी हो तो मोहल्ले वालों को पता चल जाता है और यहाँ तो वज़ीर को भी ख़बर नहीं जबकि शानदार महल भी उसके महल के सामने बन रहा था।

6, जिस तरह कहानी में दिखाया गया है कि इमाम जाफ़र सादिक़ ने इस प्रकार अपने आदेश का पालन करने पर गारंटी और ज़िम्मेदारी के साथ दावा किया है कि अगर कूंडे भरने के बाद हाजत पूरी न हो तो क़यामत के दिन मेरा दामन पकड़ लेना।

ऐसा ही एक परचा हमारे देश में भी जगह जगह तक़सीम किया जाता है लकड़हारे की कहानी पढ़िए और निम्न पर्चे को देखिये दोनों में कितनी समानता है बल्कि इस पर्चे में तो वार्निंग और भी सख्त है:

शैख़ अहमद ख़ादिम ए हुजरह ए नबवीया ने नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उस वक़्त देखा जब वह सोने की तैयारी कर रहे थे और आप ने ख़बर दी कि लोगों में बहुत फ़साद फैल गया है और यह ख़बर दी कि उनकी उम्मत में से हर जुमा को एक लाख साठ हज़ार लोग मरेंगे और क़्यामत की बाज़ निशानियों के बारे में बताया और यह बताया कि क़्यामत क़रीब है और हुक्म दिया कि उस वसीयत को आम करें और उस शख़्स के लिए बेहतरीन वादा की ख़बर दी जो उसकी तस्दीक़ करे और उसे फैलाने में जद्दोजहद करे और उसके हक़ में वईद की ख़बर दी जो उसको झुठलाए और लोगों तक उसे न पहुंचाए...... और ख़्वाब में मज़कूर दीगर बातें.....

شیخ احمد خادم حجرہ نبویہ نے محمد (صلی اللہ علیہ وسلم) کو اس وقت دیکھا، جب وہ سونے کی تیاری کر رہے تھے، اور آپ نے خبر دی کہ لوگوں میں بہت فساد پھیل گیا ہے، اور یہ خبر دی کہ ان کی امت میں سے ہر جمعہ کو ایک لاکھ ساٹھ ہزار لوگ مریں گے، اور قیامت کی بعض نشانیوں کے بارے میں بتایا اور یہ کہ قیامت قریب ہے، اور یہ حکم دیا کہ اس وصیت کو لوگوں میں عام کریں، اور اس شخص کے لئے بہترین وعدہ کی خبر دی جو اس کی تصدیق کرے اور اسے پھیلانے میں جد و جہد کرے، اور اس کے حق میں وعيد کی خبر دی جو اس کو جھٹلائے اور لوگوں تک اسے نہ پہنچائے ۔۔۔ اور خواب میں مذکور دیگر باتیں

(नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया जो मेरी तरफ़ से झूठी बात मंसूब करे वह अपना ठिकाना जहन्नम में बना ले। सही मुस्लिम 2 से 5)

7, इमाम जाफ़र सादिक़ कोई अप्रसिद्ध (ग़ैर मारूफ़) शख़्स न थे कि वह वज़ीर के घर में आये वह भी अपने असहाब के साथ और रजब के कूंडे के विषय में विस्तार से बताया फिर भी वज़ीर और उसके घर वालों में से किसी को पता न चला केवल लकड़हारे की बीवी ही जान सकी जबकी वह दौर तो ऐसा था कि अगर कोई अज़ीम व्यक्ति के आने का इशारा मिल जाता तो वज़ीर क्या राजा भी अपने लिए इज़्ज़त समझता था।

8, कहानी के अनुसार अगर कूंडे की शुरुआत मदीने से हुई तो फिर कूंडे के लिए अरबी में कोई शब्द क्यों मौजूद नहीं है।

9, कूंडे में जिस तरह का खाना पकाया जाता है वैसा खाना न पहले अरब में पकता था न अब पकता है।

10, इमाम जाफ़र सादिक़ ने अपने नाम से कूंडे भरने के लिए कहा था तो क्या किसी ज़िन्दे को भी फ़ातिहा देने की कोई रस्म राएज है?

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कहीं यह रजब के कूंडे अमीर मुआविया रज़ि की वफ़ात की ख़ुशी में तो नहीं?


कहीं ऐसा तो नहीं कि कुछ और हो पर्दा ए ज़ंगारी में। कि लकड़हारे की बीवी की कहानी को जिसकी बुनियाद बनाया जाता हो और अंदर ख़ाने में कुछ और मामला हो। बरैलवी आलिम मुहक़्क़िक़ इस्लाम हज़रत मौलाना मुहम्मद अली साहब अपनी किताब "दुश्मनाने अमीर मुआविया का इल्मी मुहासिबा" की दूसरी जिल्द में लिखते हैं: (इस किताब में बरैलवी मसलक के चोटी के 3 उलेमा (1) शारेह बुख़ारी सैयद महमूद अहमद रिज़वी (2) शैख़ुल हदीस वत तफ़सीर हज़रत मौलाना ग़ुलाम रसूल साहब फ़ैसलाबाद (3) मुफ़स्सिर क़ुरआन अल्लामतुद दहर शैख़ुल हदीस हज़रत मौलाना फ़ैज़ अहमद उवैसी की तक़रीज़ात शामिल हैं)

"22 रजब जो अमीर मुआविया रज़ि अल्लाहु अन्हु की वफ़ात का दिन है उस दिन तक़ीया की आड़ में शिया ख़ुशी मनाते हैं"

(दुश्मनाने अमीर मुआविया रज़ि अल्लाहु अन्हु का इल्मी मुहासिबा हिस्सा 2 लेखक मुहक़्क़िक़ इस्लाम मुहम्मद अली नक्शबंदी प्रकाशन मकतबा नूरिया हुसैनिया जामिया रसूलिया शीराज़ीया बिलालगंज लाहौर, प्रकाशन वर्ष दर्ज नहीं)

  22 رجب جو وفات حضرت امیر معاویہ رضی اللہ عنہ کا دن ہے اس دن تقیہ کی آڑ میں شیعہ خوشی مناتے ہیں۔ 

(دشمنان امیر معاویہ رضی اللہ عنہ کا علمی محاسبہ مصنف  محقق اسلام محمدی علی نقشبندی حصہ دوم ص 490 مکتبہ نوریہ حسینہ جامعہ رسولیہ شیرازیہ بلال گنج لاہور سن اشاعت درج نہیں(

इस के इलावा मशहूर बरैलवी आलिम मुफ़्ती शफ़क़ात अहमद नक़्शबंदी ने भी अपनी किताब "मनाक़िबे सैयदना अमीर मुआविया" में यही लिखा है कि यह अमीर मुआविया रज़ि अल्लाहु अन्हु की वफ़ात की ख़ुशी में मनाते हैं मुफ़्ती साहब ने तो यहां तक लिखा है, हां हां मैं क़सम उठा कर कहता हूं कि कई मेरी वाक़िफ़ियत वाले शिया हज़रात ने मेरे सामने बाज़ दोस्तों की मौजूदगी में एतराफ़ किया है कि हम यह मुआविया के मरने की ख़ुशी में मनाते हैं और बाक़ी लोगों को असल बात इसलिए नहीं बताते की मुआविया के मानने वाले हमारे ख़िलाफ़ हो जायेंगे। और शायेद कोई लड़ाई झगड़ा हो जाय और वैसे भी आजतक कायनात में किसी भी शख़्स ने कभी भी अपने किसी बुज़ुर्ग की वफ़ात पर या किसी भी सदमा पर कभी हलवा पूरी तक़सीम नहीं किया हां यह देखा है कि किसी मुख़ालिफ़ के मरने पर ख़ुशी का इज़हार करने के लिए हलवा पूरी तक़सीम करते हैं......... यह लोग कूंडों के नाम पर इमाम जाफ़र सादिक़ का ख़त्म नहीं दिलवाते बल्कि सैयदना अमीर मुआविया रज़ि अल्लाहु अन्हु की वफ़ात पर ख़ुशी मनाते हैं" 

(मनाक़िब ए अमीर मुआविया रज़ि अल्लाहु अन्हु, लेखक हाफ़िज़ हकीम मुफ़्ती शफ़क़ात अहमद नक्शबंदी मुजददी कीलानी सफ़हा 271, 172 प्रकाशन वज़ ज़ुहा पब्लिकेशन लाहौर जनवरी 2013)

ہاں ہاں میں قسم اٹھا کر کہتا ہوں کہ علی پور چٹھ کے کئی میری واقفیت والے شیعہ حضرات نے میرے سامنے بعض دوستوں کی موجودگی میں اعتراف کیا ہے کہ ہم یہ " معاویہ کے مرنے کی خوشی مناتے ہیں اور باقی لوگوں کو اصل بات اس لئے نہیں بتاتے کہ معاویہ" کے ماننے والے ہمارے خلاف ہو جائیں گے اور شاید کوئی لڑائی جھگڑا ہو جائے ۔ اور ویسے بھی آج تک کائنات میں کسی بھی شخص نے کبھی بھی اپنے کسی بزرگ کی وفات پر یا کسی بھی صدمہ پر کبھی حلوہ پوری تقسیم نہیں کیا ۔ ہاں یہ دیکھا ہے کسی مخالف کے مرنے پر خوشی کا اظہار کرنے کے لئے حلوہ پوری تقسیم کرتے ہیں۔۔۔۔ یہ لوگ کونڈوں کے نام پر امام جعفر صادق کی کا ختم نہیں دلواتے بلکہ جناب سیدنا امیر معاویہ رضی اللہ عنہ کی وفات پر خوشی مناتے ہیں۔

(مناقب امیر معاویہ رضی اللہ عنہ مصنف حافظ حکیم مفتی شفقات احمد نقشبندی مجددی کیلانی ص 171، 172  والضحی پیلیکشن لاہور جنوری 2013)


आसिम अकरम अबु अदीम फ़लाही

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