कुरआन के क्रम (तदरीज) के साथ उतरने की हिक्मत
आज के दौर के इस्लाम दुश्मन और नबी ﷺ के दौर के इस्लाम दुश्मन इन सबकी जहनियत हमेशा एक ही जैसी रही है क्योंकि इनके कुरआन पर ऐतराज भी हमेशा से एक जैसे ही रहे है। जिसमे से एक ऐतराज ये रहा हैं कि,
- अल्लाह ने कुरआन को एक बार में ही लिखकर क्यों नहीं भेज दिया गया?
- इस्लाम दुश्मन ये कहते है कि अल्लाह मियाँ को पैग़ाम भेजना था तो पूरा पैग़ाम एक ही वक़्त में क्यों न भेज दिया?
- ये आख़िर ठहर-ठहरकर थोड़ा-थोड़ा पैग़ाम क्यों भेजा जा रहा है?
- क्या ख़ुदा को ही इन्सानों की तरह सोच-सोचकर बात करने की ज़रूरत पड़ती है?
ये आज के दौर के और मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों का बड़ा दिलपसन्द एतिराज़ था, जिसे वो अपने नज़दीक बहुत ज़ोरदार एतिराज़ समझकर बार-बार दोहराते थे और क़ुरआन में भी इसको कई जगहों पर नक़ल करके इसका जवाब दिया गया है उनके सवाल का मतलब ये था कि अगर ये आदमी ख़ुद सोच-सोचकर, या किसी से पूछ-पूछकर और किताबों में से नक़ल कर-करके ये बातें नहीं ला रहा है, बल्कि ये सचमुच अल्लाह की किताब है, तो पूरी किताब इकट्ठी एक वक़्त में क्यों नहीं आ जाती? ख़ुदा तो जानता है कि पूरी बात क्या है जो वो कहना चाहता है। वो उतारनेवाला होता तो सबकुछ एक ही वक़्त में कह देता। ये जो सोच-सोचकर कभी कोई बात लाई जाती है और कभी कुछ, ये इस बात की खुली निशानी है कि वह्य ऊपर से नहीं आती, यहीं कहीं से हासिल की जाती है, या ख़ुद घड़-घड़कर लाई जाती है।
इस्लाम दुश्मनों के इस ऐतराज पर अल्लाह ने फरमाया;
وَ قُرۡاٰنًا فَرَقۡنٰہُ لِتَقۡرَاَہٗ عَلَی النَّاسِ عَلٰی مُکۡثٍ وَّ نَزَّلۡنٰہُ تَنۡزِیۡلًا
"और इस क़ुरआन को हमने थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है, ताकि तुम ठहर-ठहरकर इसे लोगों को सुनाओ, और इसे हमने [ मौक़े-मौक़े से] तरतीब के साथ उतारा है।"
[कुरआन 17:106]
وَ قَالَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا لَوۡ لَا نُزِّلَ عَلَیۡہِ الۡقُرۡاٰنُ جُمۡلَۃً وَّاحِدَۃً ۚ ۛ کَذٰلِکَ ۚ ۛ لِنُثَبِّتَ بِہٖ فُؤَادَکَ وَ رَتَّلۡنٰہُ تَرۡتِیۡلًا
इनकार करनेवाले कहते हैं, “इस आदमी पर सारा क़ुरआन एक ही वक़्त में क्यों न उतार दिया गया?”- हाँ, ऐसा इसलिये किया गया है कि इसको अच्छी तरह हम तुम्हारे ज़ेहन में बिठाते रहें और (इसी ग़रज़ के लिये) हमने इसको एक ख़ास तरतीब के साथ अलग-अलग हिस्सों की शक्ल दी है।"
[कुरआन 25:32]
قُلۡ نَزَّلَہٗ رُوۡحُ الۡقُدُسِ مِنۡ رَّبِّکَ بِالۡحَقِّ لِیُـثَبِّتَ الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا وَ ہُدًی وَّ بُشۡرٰی لِلۡمُسۡلِمِیۡنَ
"इनसे कहो कि इसे तो ‘रूहुल-क़ुदुस’ (पवित्र आत्मा) ने ठीक-ठीक मेरे रब की तरफ़ से थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है ताकि ईमान लानेवालों के ईमान को मज़बूत करे और फ़रमाँबारदारों को ज़िन्दगी के मामलों में सीधी राह बताए और उन्हें कामयाबी और ख़ुशनसीबी की ख़ुशख़बरी दे।"
[कुरआन 16:102]
इस आयत में अल्लाह ने कुरआन के तरतीब के साथ उतरने की पूरी हिक्मत बयान करदी जिसमे सबसे पहले क़ुरान को कौन लेकर आ रहा है उसके बारे में बताया जिसको रूहुल क़ुदुस कहा गया तो आइए सबसे पहले रूहुल क़ुदुस को ही समझते है;
रूहुल क़ुदुस का लफ़्ज़ी तर्जमा है "पाक रूह" (पवित्र आत्मा) या "पाकीज़गी की रूह" और इस्तिलाह (पारिभाषिक रूप से) ये लक़ब हज़रत जिब्रील (अलैहि०) को दिया गया है। यहाँ वह्य लानेवाले फ़रिश्ते का नाम लेने के बजाए उसका लक़ब इस्तेमाल करने का मक़सद सुननेवालों को इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है कि इस कलाम को एक ऐसी रूह लेकर आ रही है जो इन्सानी कमज़ोरियों और ख़राबियों से पाक है। वो न ख़ियानत करनेवाली है कि अल्लाह कुछ भेजे और वो अपनी तरफ़ से कमी-बेशी (कम-ज़्यादा) करके कुछ और बना दे। न झूठ बोलने और गढ़नेवाली है कि ख़ुद कोई बात गढ़कर अल्लाह के नाम से बयान कर दे। न बुरी नीयतवाली है कि अपने मतलब के लिये धोखे और छल से काम ले। वो सरासर एक मुक़द्दस और पाक रूह है जो अल्लाह का कलाम पूरी अमानत के साथ लाकर पहुँचाती है।
उपर की आयत ने अल्लाह ने कुरआन के तरतीब के साथ नाजिल होने की तीन हिकमतें बयान कि:
पहली हिक्मत : ईमान लानेवालों के ईमान को मज़बूत करना
यानी उसके थोड़ा-थोड़ा करके इस कलाम को लेकर आने और एक ही बार में सब कुछ न ले आने की वजह ये नहीं है कि अल्लाह के इल्म व समझ में कोई कमी है, जैसा कि तुमने अपनी नादानी से समझा, बल्कि इसकी वजह ये है कि इन्सान की समझने और हासिल करने की ताक़त में कमी है जिसकी वजह से वो एक ही वक़्त में सारी बात को न समझ सकता है और न एक वक़्त की समझी हुई बात में पक्का हो सकता है इसलिये अल्लाह की हिकमत का ये तक़ाज़ा हुआ कि रूहुल-क़ुदुस इस कलाम को थोड़ा-थोड़ा करके लाए, कभी मुख़्तसर बात करे और कभी बयान का एक अन्दाज़ अपनाए कभी दूसरा, और एक ही बात को बार-बार तरीक़े-तरीक़े से ज़ेहन में बिठाने की कोशिश करे, ताकि अलग-अलग क़ाबलियत और सलाहियतें रखनेवाले हक़ के तलबगार ईमान ला सकें और ईमान लाने के बाद इल्म व यक़ीन और समझ-बूझ में पुख़्ता हो सकें।
दूसरी हिक्मत : फ़रमाँबारदारों को ज़िन्दगी के मामलों में सीधी राह बताना
ये इस थोड़ा-थोड़ा उतारे जाने की दूसरी मस्लहत है। यानी कि जो लोग ईमान लाकर फ़रमाँबरदारी की राह चल रहे हैं उनको दावते-इस्लामी के काम में और ज़िन्दगी के पेश आनेवाले मामलों में जिस मौक़े पर जिस तरह की हिदायतें चाहिये हों वो उसी वक़्त दे दी जाएँ। ज़ाहिर है कि न उन्हें वक़्त से पहले भेजना मुनासिब हो सकता है और न एक ही वक़्त में सारी हिदायतें दे देना फ़ायदेमंद है।
तीसरी हिक्मत : ईमानवालों को कामयाबी और ख़ुशनसीबी की ख़ुशख़बरी देना
ये उसकी तीसरी मस्लिहत है। यानी ये कि फ़रमाँबरदारों को जिन रुकावटों और मुख़ालिफ़तों का सामना करना पड़ रहा है और जिस-जिस तरह उन्हें सताया और तंग किया जा रहा है, और दावते-इस्लामी के काम में मुश्किलों के जो पहाड़ रास्ते की रुकावट बन रहे हैं, उनकी वजह से वो बार-बार इसके मोहताज होते हैं कि ख़ुशख़बरियों से उनकी हिम्मत बँधाई जाती रहे और उनको आख़िरी नतीजों की कामयाबी का यक़ीन दिलाया जाता रहे, ताकि वो उम्मीद रखें और मायूस न होने पाएँ।
चौथी हिक्मत : इस्लाम दुश्मनों के ऐतराज का जवाब उसी वक्त दे देना
وَ لَا یَاۡتُوۡنَکَ بِمَثَلٍ اِلَّا جِئۡنٰکَ بِالۡحَقِّ وَ اَحۡسَنَ تَفۡسِیۡرًا
"और (इसमें ये मस्लिहत भी है कि) जब कभी वो तुम्हारे सामने कोई निराली बात (या अजीब सवाल लेकर आए, उसका ठीक जवाब उसी वक़्त हमने तुम्हें दे दिया और बेहतरीन तरीक़े से बात खोल दी।"
[कुरआन 25:33]
क़ुरआन के उतरने में दर्जा ब दर्जा आगे बढ़ने का तरीक़ा अपनाने की ये एक और हिकमत है। क़ुरआन उतरने की वजह ये नहीं है कि अल्लाह हिदायत के बारे में एक किताब लिखना चाहता है और उसकी इशाअत के लिये उसने नबी को नुमाइन्दा बनाया है। बात अगर यही होती तो ये माँग दुरुस्त होती कि पूरी किताब लिखकर एक ही वक़्त में नुमाइन्दे के हवाले कर दी जाए। लेकिन असल में इसके उतरने की वजह ये है कि अल्लाह कुफ़्र (ख़ुदा का इनकार) और जाहिलियत और फ़िस्क़ (ख़ुदा की नाफ़रमानी) के मुक़ाबले में ईमान और इस्लाम और फ़रमाँबरदारी और परहेज़गारी की एक तहरीक चलाना चाहता है और इसके लिये उसने एक नबी को दावत देनेवाला और रहनुमा बनाकर उठाया है। इस तहरीक के दौरान में अगर एक तरफ़ रहनुमाई करनेवाले और उसके पैरोकारों को ज़रूरत के मुताबिक़ तालीम और हिदायतें देना उसने अपने ज़िम्मे लिया है तो दूसरी तरफ़ ये काम भी अपने ही ज़िम्मे रखा है कि मुख़ालिफ़त करनेवाले जब भी कोई एतिराज़ या शक या उलझन पेश करें उसे वो साफ़ कर दे। और जब भी वो किसी बात का ग़लत मतलब निकालें तो वो उसका सही मतलब और मानी बता दे। इन अलग-अलग ज़रूरतों के लिये जो तक़रीरें अल्लाह की तरफ़ से उतर रही हैं उनके मजमूए का नाम क़ुरआन है और ये क़ानून या अख़लाक़ या फ़लसफ़े की किताब नहीं बल्कि तहरीक की किताब है जिसके वुजूद में आने की सही फ़ितरी सूरत यही है कि तहरीक के पहले लम्हे के साथ शुरू हो और आख़िरी पलों तक जैसे-जैसे तहरीक चलती रहे ये भी साथ-साथ मौक़ा और ज़रूरत के मुताबिक़ उतरती रहे।
क़ुरआन को थोड़ा-थोड़ा करके उतारने की बहुत-सी हिकमतें और हैं जिनको नीचे लिखा गया है।
1. उसका हर लफ़्ज़ याददाश्त में महफ़ूज़ हो सके, क्योंकि उसकी तबलीग़ व इशाअत (प्रचार-प्रसार) लिखी हुई नहीं, बल्कि एक अनपढ़ नबी के ज़रिए से अनपढ़ क़ौम में ज़बानी तक़रीर की शक्ल में हो रही है।
2. उसकी तालीमात अच्छी तरह ज़ेहन में बैठ सकें, इसके लिये ठहर-ठहर कर थोड़ी-थोड़ी बात कहना और एक ही बात को अलग-अलग वक़्तों में अलग-अलग तरीक़ों से बयान करना ज़्यादा फ़ायदेमंद है।
3. ज़िन्दगी गुज़ारने के उसके बताए हुए तरीक़े पर दिल जमता जाए। इसके लिये हुक्मों और हिदायतों को थोड़ा-थोड़ा करके उतारना ज़्यादा हिकमत के मुताबिक़ है, वरना अगर सारा क़ानून और ज़िन्दगी का पूरा निज़ाम (व्यवस्था) एक बार में बयान करके उसे क़ायम करने का हुक्म दे दिया जाए तो होश उड़ जाएँ। इसके अलावा ये भी एक हक़ीक़त है कि हर हुक्म अगर मुनासिब मौक़े पर दिया जाए तो उसकी हिकमत और रूह ज़्यादा अच्छी तरह समझ में आती है, इसके मुक़ाबले में कि तमाम हुक्म दफ़ावार देकर एक वक़्त में दे दिये गए हों।
4. इस्लामी तहरीक के दौरान में जबकि हक़ और बातिल की लगातार कशमकश चल रही हो, नबी और उसके पैरोकारों की हिम्मत बँधाई जाती रहे। इसके लिये ख़ुदा की तरफ़ से, बार-बार, वक़्त-वक़्त पर, मौक़े-मौक़े से पैग़ाम आना ज़्यादा कारगर है, बजाय इसके कि बस एक बार एक लम्बा-चौड़ा हिदायतनामा देकर उम्र-भर के लिये दुनिया-भर की मुख़ालिफ़तों और रुकावटों का मुक़ाबला करने के लिये यूँ ही छोड़ दिया जाए। पहली सूरत में आदमी महसूस करता है कि जिस ख़ुदा ने उसे इस काम पर लगाया है वो उसकी तरफ़ ध्यान लगाए हुए हैं, उसके काम से दिलचस्पी ले रहा है, उसके हालात पर निगाह रखता है, उसकी मुश्किलों में रहनुमाई कर रहा है और हर ज़रूरत के मौक़े पर उसे अपने सामने हाज़िरी और बात का मौक़ा देकर उसके साथ अपने ताल्लुक़ को ताज़ा करता रहता है। ये चीज़ हौसला बढ़ानेवाली और इरादे को मज़बूत रखनेवाली है। दूसरी सूरत में आदमी को यूँ महसूस होता है कि बस वो है और तूफ़ान की मौजें।
By इस्लामिक थियोलॉजी
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