Qur'an (series 10): Sabse badi naymat

Qur'an (series 10): Sabse badi naymat


कुरआन : सबसे बड़ी नेमत


कुरआन अल्लाह की तरफ से इंसानों के लिए सबसे बड़ी नेमत है;


قُلۡ بِفَضۡلِ اللّٰہِ وَ بِرَحۡمَتِہٖ فَبِذٰلِکَ فَلۡیَفۡرَحُوۡا ؕ ہُوَ خَیۡرٌ مِّمَّا یَجۡمَعُوۡنَ 

"ऐ नबी ! कहो कि “ये अल्लाह का फ़ज़ल और उसकी मेहरबानी है कि ये चीज़ उसने भेजी, इसपर तो लोगों को ख़ुशी मनानी चाहिए, ये उन सब चीज़ों से बेहतर है जिन्हें लोग समेट रहे हैं।”

[कुरआन 10:58]


وَ لَقَدۡ اٰتَیۡنٰکَ سَبۡعًا مِّنَ الۡمَثَانِیۡ وَ الۡقُرۡاٰنَ الۡعَظِیۡمَ

"हमने तुमको सात ऐसी आयतें दे रखी हैं जो बार-बार दोहराई जाने के लायक़ हैं, और तुम्हें अज़ीम क़ुरआन दिया है।"

[कुरआन 15:87]


कुरआन से बढ़कर कोई दौलत और नेमत नहीं है ये बात नबी (सल्ल०) और आपके साथियों की तस्कीन व तसल्ली के लिये कही गई है। वक़्त वो था जब नबी (सल्ल०) और आपके साथी सबके सब बहुत ही तंगहाली में मुब्तला थे नुबूवत के काम की भारी ज़िम्मेदारियाँ संभालते ही नबी (सल्ल०) की तिजारत लगभग ख़त्म हो चुकी थी और हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) की पूँजी भी दस-बारह साल के अर्से में ख़र्च हो चुकी थी। मुसलमानों में से कुछ कमसिन नौजवान थे जो घरों से निकाल दिये गए थे, कुछ कारीगर या कारोबारी थे जिनके कारोबार इस वजह से बिलकुल ठप हो गए थे, क्योंकि उनसे किसी तरह का लेन-देन बिलकुल बन्द कर दिया गया था और कुछ बेचारे पहले ही ग़ुलाम या नौकर-चाकर थे जिनकी कोई माली हैसियत न थी। इसके साथ ये बात भी थी कि नबी (सल्ल०) समेत तमाम मुसलमान मक्का और उसके आसपास की बस्तियों में बहुत ही मज़लूमी की ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। हर तरफ़ से ताने सुन रहे थे, हर जगह से रुस्वाई, नफ़रत और मज़ाक़ का निशाना बने हुए थे, और दिली व रूहानी तकलीफ़ों के साथ जिस्मानी तकलीफ़ों से भी कोई बचा हुआ न था। दूसरी तरफ़ क़ुरैश के सरदार दुनिया कि नेमतों से मालामाल और हर तरह की ख़ुशहालियों में मगन थे। इन हालात में कहा जा रहा है कि तुम मायूस क्यों होते हो, तुमको तो हमने वो दौलत दी है जिसके मुक़ाबले में दुनिया की सारी नेमतें बेकार हैं। रश्क के क़ाबिल तुम्हारी ये इल्मी व अख़लाक़ी दौलत है, न कि उन लोगों की दुनयावी दौलत जो तरह-तरह के हराम तरीक़ों से कमा रहे हैं और तरह-तरह के हराम रास्तों में इस कमाई को उड़ा रहे हैं और आख़िरकार बिलकुल कंगाल होकर अपने रब के सामने हाज़िर होनेवाले हैं।


कुरआन मानने वालों के लिए हिदायत, शिफा और रहमत है।


وَ نُنَزِّلُ مِنَ الۡقُرۡاٰنِ مَا ہُوَ شِفَآءٌ وَّ رَحۡمَۃٌ لِّلۡمُؤۡمِنِیۡنَ ۙ وَ لَا یَزِیۡدُ الظّٰلِمِیۡنَ اِلَّا خَسَارًا 

"हम इस क़ुरआन के उतरने के सिलसिले में वो कुछ उतार रहे हैं जो माननेवालों के लिये तो शिफ़ा और रहमत है, मगर ज़ालिमों के लिये घाटे के सिवा और किसी चीज़ में बढ़ोतरी नहीं करता।"

[कुरआन 17:82]


यानी जो लोग इस क़ुरआन को अपना रहनुमा और अपने लिये क़ानून की किताब मान लें उनके लिये तो ये ख़ुदा की रहमत और उनके तमाम ज़ेहनी, नफ़्सानी, अख़लाक़ी और समाजी रोगों का इलाज है। मगर जो ज़ालिम इसे रद्द करके और इसकी रहनुमाई से मुँह मोड़कर अपने ऊपर आप ज़ुल्म करें उनको ये क़ुरआन उस हालत पर भी नहीं रहने देता जिसपर वो उसके उतरने से या उसके जानने से पहले थे, बल्कि ये उन्हें उलटा इससे ज़्यादा घाटे में डाल देता है। इसकी वजह ये है कि जब तक क़ुरआन न आया था, या जब तक वो उससे वाक़िफ़ न हुए थे, उनका घाटा सिर्फ़ जहालत का घाटा था। मगर जब क़ुरआन उनके सामने आ गया और उसने हक़ और बातिल का फ़र्क़ खोलकर रख दिया तो उनपर ख़ुदा की हुज्जत पूरी हो गई। अब अगर वो उसे रद्द करके गुमराही पर अड़े रहते हैं तो इसका मतलब ये है कि वो जाहिल नहीं, बल्कि ज़ालिम और बातिलपरस्त और हक़ से भागनेवाले हैं। अब उनकी हैसियत वो है जो ज़हर और तिर्याक़ (ज़हर के असर को ख़त्म करनेवाली दवा), दोनों का देखकर ज़हर चुननेवाले की होती है। अब अपनी गुमराही के वो पूरे ज़िम्मेदार, और हर गुनाह जो इसके बाद वो करें उसकी पूरी सज़ा के हक़दार हैं। ये घाटा जहालत का नहीं, बल्कि शरारत का घाटा है जिसे जहालत के घाटे से बढ़कर ही होना चाहिये। यही बात है जो नबी (सल्ल०) ने एक बहुत छोटे लेकिन मानी से भरपूर जुमले में बयान की है कि क़ुरआन या तो तेरे लिये हुज्जत है या फिर तेरे ख़िलाफ़ हुज्जत।


وَ لَقَدۡ جِئۡنٰہُمۡ بِکِتٰبٍ فَصَّلۡنٰہُ عَلٰی عِلۡمٍ ہُدًی وَّ رَحۡمَۃً لِّقَوۡمٍ یُّؤۡمِنُوۡنَ

"हम इन लोगों के पास एक ऐसी किताब ले आए हैं, जिसे हमने इल्म की बुनियाद पर तफ़सीली बनाया है और जो ईमान लानेवालों के लिये हिदायत और रहमत है।"

[कुरआन 7:52]


यानी इसमें पूरी तफ़सील के साथ बता दिया गया है कि हक़ीक़त क्या है और इनसान के लिये दुनिया की ज़िन्दगी में कौन-सा रवैया दुरुस्त है और ज़िन्दगी के सही ढंग के बुनियादी उसूल क्या हैं, फिर ये तफ़सीलात भी अटकल या गुमान या वोम की बुनियाद पर नहीं, बल्कि ख़ालिस इल्म की बुनियाद पर हैं।

मतलब ये है कि सबसे पहले तो इस किताब के मज़ामीन (विषय) और इसकी तालीमात ही अपने-आप में इस क़द्र साफ़ हैं कि आदमी अगर इनपर ग़ौर करे तो उसके सामने राहे-हक़ वाज़ेह (स्पष्ट) हो सकती है। फिर इसपर एक और बात ये है कि जो लोग इस किताब को मानते हैं उनकी ज़िन्दगी में अमली तौर पर भी हक़ीक़त को देखा जा सकता है कि ये इनसान की कैसी सही रहनुमाई करती है और ये कितनी बड़ी रहमत है कि इसका असर क़बूल करते ही इनसान की ज़हनियत, उसके अख़लाक़ और उसकी सीरत (किरदार) में बेहतरीन इंक़िलाब शुरू हो जाता है। ये इशारा है उन हैरतअंगेज़ असरात की तरफ़ जो इस किताब पर ईमान लाने से सहाबा (नबी सल्ल० के साथियों) की ज़िन्दगी में ज़ाहिर हो रहे थे।


कुरआन की हिफाजत का ज़िम्मा अल्लाह के उपर है।


اِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا الذِّکۡرَ وَ اِنَّا لَہٗ لَحٰفِظُوۡنَ

"रहा ये ज़िक्र (कुरआन) तो इसको हमने उतारा है और हम ख़ुद इसके निगहबान हैं।"

[कुरआन 15:9]


By इस्लामिक थियोलॉजी

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