Ayelaan e Jihaad (Call for Jihad)

Ayelaan e Jihaad (Call for Jihad)


ऐलान-ए-जिहाद (CALL FOR JIHAD)

इस वक्त दुनिया के जो हालात हैं, जिस तरह से मज़लूमों पर जु़ल्म किया जा रहा है और मुसलमान की जिंदगी तंग की जा रही है। ऐसे हालात में हर मुसलमान मर्द, औरत और बच्चों को इसकी तफ्सीलात जानने की ज़रूरत है। 

  • इन हालात में हमें कुरान और हदीस और इस्लाम क्या तालिमात देता है? 
  • और क्या हमें करना चाहिए?

पहले दुनिया में जो जंगे लड़ी जाती थी वह जमीन, दौलत और हुकूमत के लिए लड़ी जाती थी। मगर आजकल यह नज़रियात की बालादस्ती और मज़हब की बुनियाद पर लड़ी जाती है। गुज़िश्ता सदी में जो जंग लड़ी गई उसे सर्द "जंग या (कोल्ड वॉर)" का नाम दिया गया। उसमें एक तरफ कैपिटलिज्म और दूसरी तरफ कम्युनिज्म था। और इस जंग में कम्युनिज्म हार गया। और इस मौजूदा सदी में जो जंग लड़ी जा रही है, या जो जंगे छेड़ी जा रही है। वो कुफ्र और इस्लाम के दरमियान लड़ी जा रही है। 

2001 में 9/11 का वाकया पेश आया। ये एक इब्तिदाई छेड़खानी थी। जो अहले बातिल ने अहले इस्लाम के खिलाफ छेड़ी थी। और इसके बाद मुसलसल कई सालों तक मुसलमान मुल्कों बिलखुसूस जिन मुल्कों से मुख़ालिफत और मजा़हिमत का खौफ था। उन्हें तबाह और बरबाद कर दिया गया। कई सालों तक मुसलमान मुल्कों बिलखुसूस जिन मुल्कों से मुख़ालिफत ओ मज़ाहिमत का खौफ था। उन्हें तबाह किया गया, जिसमें लाखों बेकसूर और मासूम मुसलमानों को शहीद किया गया। 

ताजा तरीन जंग इजरायल और फिलिस्तीन की जंग है जो असल में एक तरफा नस्लकुशी (जीनो साइड) है जिसमें हजारों मुसलमान बिलखुसूस औरतों और मासूम बच्चें शहीद किए जा रहे हैं, वह बेकसूर मुसलमान पुकार-पुकार कर कुरान के अल्फाज में कह रहे हैं,


وَ مَا لَکُمۡ لَا تُقَاتِلُوۡنَ فِیۡ سَبِیۡلِ اللّٰہِ وَ الۡمُسۡتَضۡعَفِیۡنَ مِنَ الرِّجَالِ وَ النِّسَآءِ وَ الۡوِلۡدَانِ الَّذِیۡنَ یَقُوۡلُوۡنَ رَبَّنَاۤ اَخۡرِجۡنَا مِنۡ ہٰذِہِ الۡقَرۡیَۃِ الظَّالِمِ اَہۡلُہَا ۚ وَ اجۡعَلۡ لَّنَا مِنۡ لَّدُنۡکَ وَلِیًّا ۚ ۙ وَّ اجۡعَلۡ لَّنَا مِنۡ لَّدُنۡکَ نَصِیۡرًا ﴿ؕ۷۵﴾

"आख़िर क्या वजह है कि तुम अल्लाह की राह में उन बेबस मर्दों, औरतों और बच्चों की ख़ातिर न लड़ो जो कमज़ोर पाकर दबा लिये गए हैं और फ़रियाद कर रहे हैं कि ऐ हमारे रब! हमको इस बस्ती से निकाल जिसके बाशिन्दे ज़ालिम हैं, और अपनी तरफ़ से हमारा कोई हिमायती और मददगार पैदा कर दे। [कुरआन 4:75]


फिलिस्तीनियों पर पानी, गिज़ा, बिजली और दवाएं हराम कर दी गई है और मैदाने कर्बला के मज़लूमों की तरह तड़प-तड़प कर दारे फानी से कूच कर रहे हैं। अफसोस तो यह है कि 57 मुस्लिम ममालिक के हुक्मरान इस्तिताअत, कुव्वत और फौजी ताकत रखने के बावजूद खामोश तमाशाई बने हुए हैं। जबकि दुनिया के 90 फीसद मुसलमान इन फिलिस्तीनियों की मदद को जाने को तैयार है मगर उनके पास वसाइल, रास्ता और इजाज़त नहीं है, और ना ही किसी मुसलमान ख़लीफ़ा ने जिहाद का ऐलान किया है। हालांकि मुसलमान पर इन हालात में निहत्थे मुसलमानों की मदद के लिए जिहाद फ़र्ज़ हो चुका है। क्योंकि कुरान में अल्लाह तआला का हुक्म है, जिसमें फरमाया गया कि:


اَلَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا یُقَاتِلُوۡنَ فِیۡ سَبِیۡلِ اللّٰہِ ۚ وَ الَّذِیۡنَ کَفَرُوۡا یُقَاتِلُوۡنَ فِیۡ سَبِیۡلِ الطَّاغُوۡتِ فَقَاتِلُوۡۤا اَوۡلِیَآءَ الشَّیۡطٰنِ ۚ اِنَّ کَیۡدَ الشَّیۡطٰنِ کَانَ ضَعِیۡفًا

"जिन लोगों ने ईमान का रास्ता अपनाया है वो अल्लाह की राह में लड़ते हैं और जिन्होंने इनकार [ कुफ़्र] का रास्ता अपनाया है वो ताग़ूत की राह में लड़ते हैं। तो शैतान के साथियों से लड़ो और यक़ीन जानो कि शैतान की चालें हक़ीक़त में बहुत ही कमज़ोर हैं।" [कुरआन 4:76]


अल्लाह तआला का हुक़्म है कुरान में याद रखिए यह जंग और मज़लूमों पर ज़ुल्म अब फिलिस्तीन की हद तक महदूद नहीं है, और ना ही रहेगी, दुनिया के कोने कोने में ज़ुल्म हो रहा है। और खुदा ना करें कि और बढ़ता रहेगा, हर मुल्क के इस्लाम दुश्मनों की हिम्मत और बढ़ चुकी है। पहले इसराइल थियोरिटिकल तरबीयत देता था और अब वह प्रेक्टिकल करके बता रहा है कि किस तरह से मुसलमानों को निस्त-ओ-नाबूद किया जाएगा। ना आऊजु़बिल्लाह मिन जालिक।

इन हालात में आंखें बंद करके अपने आरामदेह घरों में बैठे रहना ना मुसलमानों को जै़ब देता है। और ना इस्लाम इसकी इजाज़त देता है। मुसलमान हक के अलमबरदार (झंडावाहक) हैं और सच्चाई की खातिर जीते हैं और सच्चाई की खातिर मरते हैं वह किसी पर ज़ुल्म नहीं करते मगर कहीं ज़ुल्म होता है तो वो ना तो खामोश तमाशाई ही बने रहते हैं और ना ही खुद को जालिम के हवाले करते हैं।

याद रखिए जिहाद टेररिज्म के हम्माना नहीं है इस्लाम के दुश्मनों ने जिहाद के लफ्ज़ को बदनाम किया है और हक की ख़ातिर लड़ने वालों को जिहादी का लफ्ज़ गाली की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। हुक्मरान और हुकूमतें जमीन और मदानियत और दौलत को हत्यानेमुख़ालिफ़ीन को कुचलने को अपना हक़ समझते हैं। जबकि ये स्टेट टेररिज्म है। और इसके खिलाफ मदाफीयत करने वाले मज़लूम इंसानों को टेररिस्ट कहा जा रहा है।

यह भी याद रखिए कि जिहाद और क़िताल में फर्क है। जिहाद के माने दरअसल मुसलसल जिद्दोजेहद और कोशिश के हैं। अपने दीन ओ ईमान की ज़बान से तब्लीग और इताअत की कोशिश करना "जिहाद बिल्लिसान" है, और कलम के जरिए या मीडिया के जरिए दीन के मुताल्लिक गलतफहमियों को दूर करना और इसकी तालीमात को आसान तरीके से आम करना "जिहाद बिल कलम" है और अपने दीन और ईमान की हिफ़ाज़त के लिए अपनी जानों, माल और अपनी ख्वातीन की इज्जत आबरू की हिफाजत के लिए और मजलूमों की हिफाजत की खातिर अपनी जान की बाज़ी लगाकर भी उनके लिए लड़ना "जिहाद बिस्सैफ" की तारीफ में आता है। और इस आख़िरी कोशिश को "क़िताल फी सबिलिल्लाह" भी कहते हैं। और क़िताल भी ना हक नहीं होगा बगैर किसी जायज़ वजह के किसी मासूम, बेकसूर इंसानों को मारना या कत्ल करना इस्लाम में हराम है चाहे वह किसी मुसलमान का कत्ल हो या किसी गैर मुस्लिम का। 


مِنۡ اَجۡلِ ذٰلِکَ ۚ ۛ ؔ کَتَبۡنَا عَلٰی بَنِیۡۤ اِسۡرَآءِیۡلَ اَنَّہٗ مَنۡ قَتَلَ نَفۡسًۢا بِغَیۡرِ نَفۡسٍ اَوۡ فَسَادٍ فِی الۡاَرۡضِ فَکَاَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِیۡعًا ؕ وَ مَنۡ اَحۡیَاہَا فَکَاَنَّمَاۤ اَحۡیَا النَّاسَ جَمِیۡعًا ؕ وَ لَقَدۡ جَآءَتۡہُمۡ رُسُلُنَا بِالۡبَیِّنٰتِ ۫ ثُمَّ اِنَّ کَثِیۡرًا مِّنۡہُمۡ بَعۡدَ ذٰلِکَ فِی الۡاَرۡضِ لَمُسۡرِفُوۡنَ 

“जिसने किसी इनसान को ख़ून के बदले या ज़मीन में फ़साद फैलाने के सिवा किसी और वजह से क़त्ल किया, उसने मानो तमाम इनसानों को क़त्ल कर दिया और जिसने किसी की जान बचाई उसने मानो तमाम इनसानों को ज़िन्दगी बख़्श दी।” [कुरआन 5:32]


जिहाद कब फर्ज़ होता है?

उलेमाए मुफ्ती इकराम इस बात का फतवा देते हैं और हुक्म लगाते हैं कि जिहाद बमाने कत्ल या क़िताल उस वक्त सारे मुसलमान पर फर्ज़-ए-ऐन हो जाता है। जब किसी मुल्क का ख़लीफ़ा इसकी आम मुनादी कराता है या हुक्म देता है। 

आज के उलेमा इकराम हमें यह कहते हैं कि किसी मुल्क का ख़लीफ़ा जब हुक्म दे तो तब क़िताल या जिहाद फ़र्ज़ होता है। मगर आज की अजीब बात यह है कि कहीं भी मुसलमान ख़लीफ़ा नहीं है बल्कि 57 मुमालिक के जो हुक्मरान है वह बादशाह है जिनमें से अक्सरियत दुश्मनाने इस्लाम के खरीदे हुए गुलाम है और यह मुस्लिम आवाम पर मुसल्लत है और मग़रिबी मुमालिक और इस्लाम के दुश्मनों की कठपुतलियां हैं जिनके नज़र में आने वाले तारों की हरकत पर वह रक्स करते हैं।

  • इन हालात में आख़िर कौन मुसलमान हुक्मरान है जो मुसलमान को जिहाद के लिए आवाज देगा? 
  • जो इस्लाम के दुश्मनों के ख़िलाफ़ जिहाद फीसबिलिल्लाह का हुक्म देगा?

हालिया फिलिस्तीन की जंग ने यह साबित कर दिया है कि मुसलमान का अल्लाह के सिवा कोई भी मददगार नहीं है। 57 मुस्लिम मुमालिक हुक्मरान में से भी कोई नहीं जो इजरायल के खिलाफ एक कदम भी आगे बढ़ाने की हिम्मत कर सके चाहे वह हजारों या लाखों मुसलमान और तो बच्चों बूढ़ो का सबका कत्ल क्यों न कर दे चाहे वह उनका खाना, पानी, और इंसानी जरूरत की सारी चीज़ इन पर बंद कर दे। किसी मुस्लिम हुक्मरान को चूं करने की भी हिम्मत नहीं है। इसकी वजह यह है कि इनमें से अक्सर मुमालिक इजरायल के सूदी कर्जों के जाल में फंसे हुए हैं या वह लोग इनके जराइम का रिकॉर्ड रखते हैं और उनके ख़िलाफ़ आवामी बगावत कराने और रजिम चेंज करने की सलाहियत रखते हैं। इनकी अय्याशियों और गुनाहों का सबूत रखते हैं जिन्हें आम करके वह उनकी कुर्सियां गिरा सकते हैं बल्कि इनमें से अक्सर इन्हीं के रहम ओ करम से कुर्सियां हासिल किए हुए हैं जो कभी भी खींच सकते हैं। 

  1. इन गुंजलक हालत में अब कौन है जो जिहाद का ऐलान (Call For Jihad) करें?
  2. मगर सारे मुसलमान और खासकर साहिब इल्म अफराद, उलेमा इकराम से सवाल है कि क्या किसी ख़लीफ़ा की अदब मौजूदगी में सारे इस्लामी फराइज़ रुक जाएंगे?
  3. मसलन नमाजे जुमा की इमामत के लिए यह शर्त है कि मुल्क का ख़लीफ़ा या उसका गवर्नर इमामत करेगा और ख़ुत्बा ए जुमा देगा। आज मगर ख़लीफ़ा मौजूद नहीं है तो क्या मुल्क भर की मस्जिदों में नमाजे जुमा रोक दी गई है?
  4. इसी तरह सारे मुसलमान इस्लामी मम्लिकत के बैतूल माल में सलाना जकात जमा करने के पाबंद है मगर ख़लीफ़ा और अपने बैतूल माल का वजूद ना हो तो क्या सारे मुसलमान जकात जमा नहीं कर रहे हैं?
  5. जब ख़लीफ़ा और इस्लामी मम्लिकत ना होने की वजह से मुसलमान के सारे इस्लामी फराइज़ अदा हो रहे हैं तो फिर जिहाद क्यों खत्म कर दिया गया?
  6. क्या यह मौके का फायदा उठाने और जिहाद की मशक्कतों से बचने का चोर दरवाजा तो नहीं है?


जबकि जिहाद फी सबिलिल्लाह कल भी फ़र्ज़ था आज तो ज्यादा सख़्ती से फ़र्ज़ियत के दर्जे में पहुंच गया है।

इस मसले का हल यह है कि हर मुल्क के उलेमा सहाबी समझ लोगों की एक बॉडी बनाई जाए और इनको इस बात का मुख्तार बनाया जाए कि वह जहां जैसे हालात में होंगे, जितने सख्त हालात होंगे, जहां पर ज़ुल्म होगा उसकी जरूरत के मुताबिक मुसलमानों की रहनुमाई करेंगे और जब वो फतवा जारी कर देंगे तो मुसलमान इसकी इत्तिबा करेंगे। अगर वह जिहाद का भी ऐलान कर दे तो मुसलमान उनकी इस हुक्म की भी इत्तीबा करेंगे। 

सारे मुमालिक के एहले इल्म मुत्ताहिद हो और बाड़ी तश्कील दे। अगर ये संभव नहीं है तो हर मुल्क के उलेमा और अहले इल्म की ये जिम्मेदारी है कि वह इस सिलसिले में कोशिश करें या कम से कम बड़े बड़े इल्मी मराकिज की जिम्मेदारी है। कि वह मुतफ्फिका तौर पर फतवे और रहनुमाई का काम अंजाम दे। अगर वह ऐसा नहीं करेंगे तो मुसलमान दुनिया में यूं ही कटते मरते और मजलूम की मौत मरते रहेंगे। और इस कौम के रहनुमा और उलेमा रोज़-ए-कयामत अल्लाह के सामने जवाबदेह होंगे। 


मेरा दूसरा सवाल यह है कि,

  • उलेमा और रहनुमा फत्वे सादिर कर भी दे। तो हम में से कितने हैं जो इन फत्वों की इताअत करेंगे?? और जिहाद के लिए निकलेंगे?
  • हम में से कितने लोग हैं, जो इसकी हिम्मत और जुर्रत ए ईमानी और हरारत रखते हैं?

हमें तो वहम की बीमारी लग गई है हम दुनिया परस्ती और मौत से डरने में लगे हुए हैं। 


हम में से कितने हैं, जो इस जिहाद की अमली तरबियत रखते हैं?

इसके लिए जरूरत है कि हम दुनिया में इज्जत से जीने और इज्जत से शहीद की मौत मरने की फजीलतों को एक दूसरे से वाकिफ भी कराऐ। और लोग वाकीफियत हासिल भी करें। उसके साथ-साथ इसकी तरबीयत भी हासिल करें। 


इसराइल अपने हर शहरी पर जंगी तरबीयत लाज़मी कर देता है। तो इस पर कोई एतराज नहीं मगर मुसलमान ऐसी तरबीयत हासिल करें तो जुर्म क्यों?

मुसलमानों बिलखुशूस नौजवानों को चाहिए कि कम से कम जुडौं, कर्राटे जैसे जिस्मानी फुर्ती की तरबियत हासिल करें। क्योंकि आजकल मैदान-ए-जंग में मुकाबला की जंग नहीं हो रही, बल्कि गोरेलो किस्म की मोहिमात से ही यह जंगे हो रही है। बिलखुसूस अफगानिस्तान इसकी मिसाल है, कि दुनिया की तकरीबन 50 हुकूमतें और उनकी  फौजी ताकतें मिलकर भी अफगानिस्तान के मुजाहिदों का कुछ बिगाड़ नहीं सकी, और बातिल पश्पा होने पर मजबूर हो गया।

सबसे अहम बात यह है कि हम अल्लाह पर तवक्कुल करें। अल्लाह पर भरोसा करें अपनी ताकत के ऐतबार से कोशिश करें अल्लाह के रास्ते में मेहनत और जिहाद करें तभी अल्लाह की ग़ैबी मदद आएगी। मस्जिदों में बैठकर दुआएं करने से हमारे पास कोई ग़ैबी मदद नहीं आएगी।

अल्लाह से दुआ है अल्लाह हमें समझने और अमल करने की तौफीक अता फरमाए। 

आमीन


By इस्लामिक थियोलॉजी

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