Muhammad saw par darood o salam

Muhammad saw par darood o salam


हजरत मुहम्मद ﷺ के अल्लाह के पैग़म्बर होने के सबूत।

मुहम्मद ﷺ पर दुरूद ओ सलाम


اِنَّ اللّٰہَ وَ مَلٰٓئِکَتَہٗ یُصَلُّوۡنَ عَلَی النَّبِیِّ ؕ یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا صَلُّوۡا عَلَیۡہِ وَ سَلِّمُوۡا تَسۡلِیۡمًا ﴿۵۶﴾

"अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी पर दुरूद भेजते हैं, ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम भी उनपर दुरूद और सलाम भेजो।"

[कुरआन 33:56]


अल्लाह और फरिश्तों का मुहम्मद ﷺ पर दुरूद भेजने का मतलब

अल्लाह की तरफ़ से अपने नबी पर सलात का मतलब ये है कि वो आप (ﷺ) पर बेहद मेहरबान है, आप (ﷺ) की तारीफ़ करता है, आप (ﷺ) के काम में बरकत देता है, आप (ﷺ) का नाम बुलन्द करता है और आप (ﷺ) पर अपनी रहमतों की बारिश करता है।

फ़रिश्तों की तरफ़ से मुहम्मद (ﷺ) पर सलात का मतलब ये है कि वे आप (ﷺ) से बहुत ज़्यादा मुहब्बत रखते हैं और आप (ﷺ) के हक़ में अल्लाह से दुआ करते हैं कि वो आप (ﷺ) को ज़्यादा से ज़्यादा बुलन्द दर्जे दे, आप (ﷺ) के दीन को सरबुलंद करे, आप (ﷺ) की शरीअत को बढ़ावा दे और आप (ﷺ) को मक़ामे-महदूद (तारीफ़ के सबसे ऊँचे मक़ाम) पर पहुँचाए।

जब ये आयत नाजिल हुई वक़्त वो था जब इस्लाम-दुश्मन इस साफ़ और वाज़ेह दीन की तरक़्क़ी पर अपने दिल की जलन निकालने के लिये मुहम्मद (ﷺ) के ख़िलाफ़ इलज़ामों की बौछार कर रहे थे और अपने नज़दीक ये समझ रहे थे कि इस तरह कीचड़ उछालकर वे आप (ﷺ) के उस अख़लाक़ी असर को कम कर देंगे जिसकी बदौलत इस्लाम और मुसलमानों के क़दम दिन-पर दिन बढ़ते चले जा रहे थे। इन हालात में ये आयत उतारकर अल्लाह ने दुनिया को ये बताया कि कुफ़्र करनेवाले, मुशरिक और मुनाफ़िक़ मेरे नबी को बदनाम करने और नीचा दिखाने की जितनी चाहें कोशिशें कर देखें, आख़िरकार ये कायनात का निज़ाम जिन फ़रिश्तों के ज़रिए से चल रहा है, वे सब उसके तरफ़दार और उसकी तारीफ़ करनेवाले हैं। वे उसको बुरा-भला कहकर क्या पा सकते हैं, जबकि अल्लाह उसका नाम बुलन्द कर रहा हूँ और मेरे फ़रिश्ते उसकी तारीफ़ों की चर्चाएँ कर रहे हैं। वे अपने ओछे हथियारों से उसका क्या बिगाड़ सकते है, जबकि मेरी रहमतें और बरकतें उसके साथ हैं और मेरे फ़रिश्ते दिन-रात दुआ कर रहे हैं कि ऐ तमाम जहानों के रब, मुहम्मद (ﷺ) का मर्तबा और ज़्यादा ऊँचा कर और उसके दीन को और बढ़ा और फैला दे।


ईमान वालों का मुहम्मद ﷺ पर दुरुद भेजना


يَـٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوا۟ صَلُّوا۟ عَلَيْهِ وَسَلِّمُوا۟ تَسْلِيمًا

"ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम भी उनपर (मुहम्मद ﷺ) दुरूद और सलाम भेजो।"

[कुरआन 33:56]


दूसरे अलफ़ाज़ में इस आयत का मतलब ये है कि ऐ लोगो, जिनको अल्लाह के पैग़म्बर मुहम्मद (ﷺ) की बदौलत सीधी राह मिली हुई है, तुम उनकी क़द्र पहचानो और उनके इतने बड़े एहसान का हक़ अदा करो। तुम जहालत के अंधेरों में भटक रहे थे, इस पैग़म्बर ने तुम्हें इल्म की रौशनी दी। तुम अख़लाक़ की पस्तियों में गिरे हुए थे, इस पैग़म्बर ने तुम्हें इतना ज़्यादा उठाया और इस क़ाबिल बनाया कि आज लोग तुमसे हसद (ईर्ष्या) कर रहे हैं। तुम जंगलीपन और हैवानियत में मुब्तला थे, इस पैग़म्बर ने तुमको बेहतरीन इन्सानी तहज़ीब से सजाया-सँवारा। ग़ैर-मुस्लिम दुनिया इसी लिये इस शख़्स से नाराज़ रही है कि उसने ये एहसान तुमपर किये, वरना उसने किसी के साथ निजी तौर पर कोई बुराई न की थी। इसलिये अब तुम्हारे एहसान मानने का लाज़िमी तक़ाज़ा ये है कि जितनी जलन व दुश्मनी वे इस पैग़म्बर से रखते हैं जो सर से पैर तक भलाई ही भलाई है, उतनी ही बल्कि उससे ज़्यादा मुहब्बत तुम उससे रखो, जितनी वे इससे नफ़रत करते हैं, उतने ही बल्कि उससे ज़्यादा मुहब्बत तुम उससे रखो, जितनी वे इससे नफ़रत करते हैं, उतने ही बल्कि उससे ज़्यादा तुम उसके चाहनेवाले बन जाओ। जितना वे उसको बुरा कहते हैं, उतने ही, बल्कि उससे ज़्यादा तुम उसकी भलाई चाहनेवाले बनो और उसके हक़ में वही दुआ करो जो अल्लाह के फ़रिश्ते रात-दिन उसके लिये कर रहे हैं कि

ऐ दो जहाँ के रब! जिस तरह तेरे पैगम्बर मुहम्मद (ﷺ) ने हमपर अनगिनत एहसान किये हैं, तू भी उनपर बेहद व बेहिसाब रहमत कर, उनका मर्तबा दुनिया में भी सबसे ज़्यादा बुलन्द कर और आख़िरत में भी उन्हें तमाम क़रीबियों से बढ़कर क़रीब कर।


اِنَّ اللّٰہَ وَ مَلٰٓئِکَتَہٗ یُصَلُّوۡنَ عَلَی النَّبِیِّ ؕ یٰۤاَیُّہَا الَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا صَلُّوۡا عَلَیۡہِ وَ سَلِّمُوۡا تَسۡلِیۡمًا ﴿۵۶﴾

"अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी पर दुरूद भेजते हैं, ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम भी उनपर दुरूद और सलाम भेजो।"

[कुरआन 33:56]


इस आयत में मुसलमानों को दो चीज़ों का हुक्म दिया गया है। 

  1. एक सल्लू अलैहि और 
  2. दूसरे सल्लिमू तसलीमा

सलात का लफ़्ज़ जब अला लफ़्ज़ के साथ जुड़कर आता है तो उसके तीन मतलब होते हैं-

1. किसी पर माइल होना, उसकी तरफ़ मुहब्बत के साथ ध्यान देना और उसपर झुकना।

2. किसी की तारीफ़ करना।

3. किसी के हक़ में दुआ करना।


ये लफ़्ज़ जब अल्लाह के लिये बोला जाएगा तो ज़ाहिर है कि तीसरे मानी में नहीं हो सकता, क्योंकि अल्लाह का किसी और से दुआ करने के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता। इसलिये ज़रूर वो पहले दो मानी में होगा। लेकिन जब ये लफ़्ज़ बन्दों के लिये बोला जाएगा, चाहे वे फ़रिश्ते हों या इन्सान, तो वो तीनों मानी में होगा। इसमें मुहब्बत का मतलब भी शामिल होगा, तारीफ़ का मतलब भी और रहमत की दुआ का मतलब भी।

लिहाज़ा ईमानवालों को मुहम्मद (ﷺ) के हक़ में सल्लू अलैहि का हुक्म देने का मतलब ये है कि तुम उनके दीवाने हो जाओ, उनकी तारीफ़ करो और उनके लिये दुआ करो।

सलाम का लफ़्ज़ भी दो मतलब रखता है-

1. हर तरह की आफ़तों और ख़राबियों से बचे रहना, जिसके लिये हम उर्दू और हिन्दी में सलामती का लफ़्ज़ बोलते हैं।

2. दूसरा अमन व सुकून की हालत और मौजूद दुश्मनी से हिफ़ाज़त। 


इसलिये मुहम्मद (ﷺ) के हक़ में सल्लिमू तसलीमा कहने का मतलब ये है कि तुम उनके हक़ में पूरी सलामती की दुआ करो और दूसरा मतलब ये है कि तुम पूरी तरह दिल और जान से उनका साथ दो, उनकी मुख़ालिफ़त से बचो और उनके सच्चे फ़रमाँबरदार बनकर रहो।

ये हुक्म जब उतरा तो कई सहाबा (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (ﷺ) से अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल, सलाम का तरीक़ा तो आप हमें बता चुके हैं (यानी नमाज़ में अस्सलामु अलै-क अय्युहन-नबीयु व रहमतुल्लाहि व ब-रकातुहू और मुलाक़ात के वक़्त अस्सलामु अलैकुम या रसूलुल्लाह कहना) मगर आप (ﷺ) पर सलात भेजने का तरीक़ा क्या है? इसके जवाब में नबी (सल्ल०) ने बहुत-से लोगों को अलग-अलग मौक़ों पर जो दुरूद सिखाए हैं वे हम नीचे नक़ल करते हैं-


मुहम्मद ﷺ ने फरमाया:

मुझ पर दुरूद पढ़ो और ख़ूब कोशिश से दुआ करो और कहो : 

(اللھم ! صل علی محمد و علی آل محمد)

"ऐ अल्लाह! मुहम्मद (ﷺ) और आले-मुहम्मद पर ख़ुसूसी रहमतें नाज़िल फ़रमा।"

[सुनन नसाई : 1293]


एक मर्तबा कअब-बिन-उजरा (रज़ि०) से मेरी मुलाक़ात हुई तो उन्होंने कहा, क्यों न तुम्हें (हदीस का) एक तोहफ़ा पहुँचा दूँ जो मैंने रसूलुल्लाह (सल्ल०) से सुना था। मैंने कहा जी हाँ मुझे ये तोहफ़ा ज़रूर इनायत फ़रमाइये। उन्होंने बयान किया कि आप (सल्ल०) से पूछा था या रसूलुल्लाह! हम आप पर और आप के अहले-बैत पर किस तरह दुरूद भेजा करें? अल्लाह तआला ने सलाम भेजने का तरीक़ा तो हमें ख़ुद ही सिखा दिया है। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि इस तरह कहा करो, 

اللهم صل على محمد ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ وعلى آل محمد ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ كما صليت على إبراهيم وعلى آل إبراهيم ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ إنك حميد مجيد ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ اللهم بارك على محمد ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ وعلى آل محمد ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ كما باركت على إبراهيم ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ وعلى آل إبراهيم ، ‏‏‏‏ ‏‏‏‏ إنك حميد مجيد 

''ऐ अल्लाह! अपनी रहमत नाज़िल फ़रमा मुहम्मद (सल्ल०) पर और आले- मुहम्मद (सल्ल०) पर जैसा कि तूने अपनी रहमत नाज़िल फ़रमाई इब्राहीम पर और आले- इब्राहीम (अलैहि०) पर। बेशक तू बड़ी ख़ूबियों वाला और बुज़ुर्गी (पाकी) वाला है। ऐ अल्लाह! बरकत नाज़िल फ़रमा मुहम्मद पर और आले-मुहम्मद पर जैसा कि तूने बरकत नाज़िल फ़रमाई इब्राहीम पर और आले-इब्राहीम पर। बेशक तू बड़ी ख़ूबियों वाला और बड़ी अज़मत वाला है।"

[सहीह बुखारी : 3370]


ये दुरूद थोड़े-थोड़े लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ हज़रत कअब-बिन-उजरा (रज़ि०) से बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा, इमाम अहमद, इब्ने-अबी-शैबा, अब्दुर्रज़्ज़ाक़, इब्ने-अबी-हातिम (रज़ि०)- इनसे भी बहुत-से फ़र्क़ के साथ वही दुरूद रिवायत हुआ है जो ऊपर नक़ल हुआ है। (हदीस: इब्ने-जरीर)


अबू-हुमैद साइदी (रज़ि०) :

"अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अज़्वाजिही व ज़ुर्रियातिही कमा सल्लै-त अला इबराही-म व बारिक अला मुहम्मदिंव व अज़्वाजिही व ज़ुर्रियातिही कमा बारक-त अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद।"

[हदीस : मालिक, अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा]


अबू-सईद बद्री (रज़ि०):

"अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद कमा सल्लै-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद कमा बारक-त अला इबराही-म फ़िल-आलमी-न इन्न-क हमीदुम-मजीद।"

[मालिक, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, अहमद, इब्ने-जरीर, इब्ने-हिब्बान, हाकिम]


अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०)-

"अल्लाहुम-म सल्लि अला अब्दि-क व रसूलि-क कमा सल्लै-त अला-इबराही-म व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा बारक-त अला इबराहीम।" 

[हदीस : अहमद, बुख़ारी, नसई, इब्ने-माजा]


बुरैदा-ख़ुज़ाई-

"अल्लाहुम्मजअल-सलात-क व रह-म-त-क व ब-रकाति-क अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा जअल-तहा अला इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद।"

[हदीस : अहमद, अब्द-बिन-हमीद, इब्ने-मर्दूया)]


अबू-हुरैरा (रज़ि०)-

"अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा सल्लै-त व बारक-त अला इबराही-म व आलि इबराही-म फ़िल-आलमी-न इन्न-क हमीदुम-मजीद।"

[हदीस : नसई]


तलहा (रज़ि०) – 

"अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा सल्लैत अला इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद, व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला मुहम्मद, कमा बारक-त अला इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद।"

[हदीस : इब्ने-जरीर]


ये तमाम दुरूद अलफ़ाज़ के अलग-अलग होने के बावुजूद मतलब में एक जैसे हैं। इनके अन्दर कुछ अहम् नुक्ते (बिन्दु) हैं जिन्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिये-

सबसे पहले, इन सबमें नबी (ﷺ) ने मुसलमानों से फ़रमाया है कि मुझपर दुरूद भेजने का बेहतरीन तरीक़ा ये है कि तुम अल्लाह से दुआ करो कि ऐ अल्लाह, तू मुहम्मद (ﷺ) पर दुरूद भेज।

ये बात कि नबी (ﷺ) पर दुरूद भेजना इस्लाम की सुन्नत है, जब आप (ﷺ) का नाम आए उसका पढ़ना मुस्तहब है और ख़ास तौर से नमाज़ में इसका पढ़ना सुन्नत है, इसपर तमाम आलिम एकमत हैं। इस बात को भी सभी मानते हैं कि उम्र में एक बार नबी (ﷺ) पर दुरूद भेजना फ़र्ज़ है, क्योंकि अल्लाह ने साफ़ अलफ़ाज़ में इसका हुक्म दिया है। लेकिन इसके बाद दुरूद के मसले में आलिमों के बीच इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। ये इख़्तिलाफ़ सिर्फ़ वाजिब होने के मामले में है। बाक़ी रही दुरूद की फ़ज़ीलत और उसका इनाम और सवाब का सबब होना और उसका एक बहुत बड़ी नेकी होना, तो इसपर सारी उम्मत एक राय है। इसमें किसी ऐसे शख़्स को एतिराज़ नहीं हो सकता जिसमें ज़रा भी ईमान पाया जाता हो।

दुरूद तो फ़ितरी तौर पर हर उस मुसलमान के दिल से निकलेगा जिसे ये एहसास हो कि मुहम्मद (ﷺ) अल्लाह के बाद हमारे सबसे बड़े मुहसिन हैं। इस्लाम और ईमान की जितनी क़द्र इन्सान के दिल में होगी, उतनी ही ज़्यादा क़द्र उसके दिल में नबी (ﷺ) के एहसानों की क़द्र करनेवाला होगा, उतना ही ज़्यादा वो नबी (ﷺ) पर दुरूद भेजेगा, तो हक़ीक़त में दुरूद का ज़्यादा से ज़्यादा भेजा जाना एक पैमाना है जो नापकर बता देता है कि मुहम्मद (ﷺ) के दीन से एक आदमी कितना गहरा ताल्लुक़ रखता है और ईमान की नेमत की कितनी क़द्र उसके दिल में है।


इसी वजह से नबी (ﷺ) ने फ़रमाया:

"जो मुझपर एक बार दुरूद भेजता है अल्लाह उसपर दस बार दुरूद भेजता है।"

[हदीस : मुस्लिम 849, 912, तिर्मिज़ी 3614 अबु दाऊद1530]


"जो शख़्स मुझ पर एक बार दुरूद पढ़ेगा अल्लाह उसपर दस रहमतें नाज़िल फ़रमाएगा और उसकी दस ग़लतियाँ माफ़ कर दी जाएँगी और उसके दस दर्जे बुलन्द किये जाएँगे।"

[सुनन नसाई: 1298]


"क़ियामत के दिन मेरे साथ रहने का सबसे ज़्यादा हक़दार वो होगा जो मुझपर सबसे ज़्यादा दुरूद भेजेगा। इमाम तिरमिज़ी कहते हैं ये हदीस हसन ग़रीब है।" 

[हदीस : तिरमिज़ी 484]


"कंजूस है वो शख़्स जिसके सामने मेरा ज़िक्र किया जाए और वो मुझपर दुरूद न भेजे।"

[हदीस : तिरिमिज़ी 3546, मुसनद अहमद 5707]


रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया:

"उस शख़्स की नाक ख़ाक आलूद हो जिस के पास मेरा ज़िक्र किया जाए और वो शख़्स मुझ पर सलात न भेजे।"

[तिरमिजी : 3545]


By इस्लामिक थियोलॉजी

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