12 रबी उल अव्वल को जश्न क्यों?
कई सालों से मेरे ज़ेहन में एक बात चल रही है जो साल के हर माह रबी उल अव्वल में ताज़ी हो जाती है,
- आख़िर 12 रबी उल अव्वल को जश्न क्यों मानते हैं?
- क्या वाक़ई ये नबी (ﷺ) की विलादत का दिन है या फिर उनकी वफ़ात का?
और मै इस बात को लेकर परेशान हो जाती हूँ कि बहुत ज़्यदा सवाब हासिल करने के चक्कर में हमारे मुसलमान भाई-बहन किस क़दर गुमराही, खुराफात और बिदअत में मुब्तला होते जा रहे हैं। जब की रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया,
"अल्लाह के नज़दिक सबसे महबूब अमल वो है जिसका करने वाला उसे हमेशा करे।" [सहीह बुख़ारी 43]
आज बहुत ज़्यादा सवाब के चक्कर में हम नबी की विलादत का जश्न (बर्थडे) माना रहे हैं। आप (ﷺ) की विलादत पर ख़ुशी मनाना तो समझ आता है पर विलादत की सही तारीख़ तो पता चले। दूसरी बात ये है कि, यहूदियों और ईसाईयों की तरह बर्थडे मनाना क्या उनकी मुशाबीहत नहीं है?
कुछ उलमा कहते हैं 12 रबी उल अव्वल आप (ﷺ) की पैदाइश का दिन हैं पर कुछ इसके ख़िलाफ़ हैं पर आप (ﷺ) की वफ़ात पर इज्मा है कि इस दिन आपकी वफ़ात हुई। मेरी अब तक की तहक़ीक़ से ये मालूम हुआ की इस दिन जश्न मनाना जाएज़ नहीं है। हराम और हलाल का फ़तवा लगाना मेरे अख़्तियार में नहीं है पर क़ुरान और सुन्नत की रौशनी में जो पाया उससे ये साबित होता है कि ये गलत है, ये दीन में एक नई चीज़ की खोज है जिसे बिदअत कहते हैं।
रसूलुल्लाह (ﷺ) 11 हिजरी, 12 रबी उल अव्वल को इस दुनिया से रुखसत हुए, उस दिन मुसलमान बहुत ग़मज़दा थे पर यहूद और नसरानियों ने खुशियां मनाई थी। तो क्या आपको नहीं लगता इस दौर के कुछ मुसलमान भी आप (ﷺ) की वफ़ात पर जुलूस निकाल कर, ढोल बजा कर, मस्जिदों को सजा कर खुशियां मना रहे हैं।
मैंने अब तक जो समझा वो आपको बता दिया, इसके अलावह मैंने इस पर एक आर्टिकल लिखा था जिसमे मैंने डिटेल में इसे कवर किया है (https://islamictheologies.blogspot.com/2022/10/eid-milad-un-nabi-mawlid-al-nabi-rabi.html) आप इस लिंक पर क्लिक करके इसे पढ़ सकते हैं।
अब ज़रा मेरी कुछ बातों पर ग़ौर करें और आप खुद सोचें क्या सही है और क्या गलत?
1. रबी उल अव्वल का महीना रसूल अल्लाह (ﷺ) की जिंदगी में 63 बार आया और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने एक भी दफा अपने पैदाइश के दिन या महीने को नहीं मनाया।
2. 23 साल तक रसूलुल्लाह (ﷺ) पर क़ुरआन नाज़िल हुआ पर किसी एक भी आयत में मिलाद मनाने का ज़िक्र नहीं हुआ। हाँ, ये बात अलग है की किसी आयत को तोड़ मरोड़ कर ये साबित करने की कोशिश की जाती रही है।
3. आप (ﷺ) की विलादत की सही तारीख़ उनके खानदान के लोगों को पता थी पर फिर भी नबूवत मिलने के बाद किसी ने इस दिन को खास नहीं बनाया।
4. चारों खुलफा-ए-राशिदीन का दौर देखे तो इनके दौरे ए ख़िलाफ़त में 2 से 12 दफा रबी उल अव्वल का महीना आया,
i . अबु बकर रज़ि० आप (ﷺ) के जिगरी दोस्त थें, राज़दार थे, ससुर थें और आपकी ख़िलाफ़त में 2 दफ़ा ये दिन आया।
ii. उमर रज़ि० भी आपके ससुर थे और आप (ﷺ) की ज़िन्दगी में एक खास मक़ाम रखते थें जिन्होंने बारह साल हुकूमत संभाली।
iii. उस्मान रज़ि० को दुनूरैन का लक़ब मिला क्यूंकि आप (ﷺ) की दो बेटियां इनके निकाह में थीं और अगर कोई और बेटी बगैर निकाह के होती तो आप (ﷺ) उनका भी निकाह उनसे कर देते। आप ने 2 दफ़ा ख़िलाफ़त का मनसब संभाला पर क्या उन्होंने ऐसा किया?
iv. अली रज़ि० आप (ﷺ) के चहिते चचाज़ाद भाई थे जिनकी परवरिश आप (ﷺ) ने की और अपनी सबसे छोटी चहीती बेटी फ़ातिमह रज़ि० अन्हा का निकाह इनसे किया। इनकी ख़िलाफ़त में 4 दफ़ा ये दिन आया पर इन्होने भी इस दिन कोई जशन नहीं मनाया।
5. आप (ﷺ) की बेटी फ़ातिमह रज़ि० की ज़िन्दगी में ये दिन कई बार आया पर उन्होंने भी अपने वालिद की विलादत के दिन को ख़ास नहीं बनाया।
6. हसन और हुसैन रज़ि० आप (ﷺ) की गोद में पले-बढ़ें, और आपकी वफ़ात के कई सालों तक इस दिन से हो कर गुज़रे पर इन दोनों का भी वही अमल रहा जो उनके वालिद और वालिदाह का रहा।
7. इमाम-अबू हनीफा, मालिक, इमाम शाफई इमाम अहमद, हसन अल-बसरी, इब्न सीरीन (رَحِمَهُ ٱللَّٰهُ) ने भी अपनी किताबों में इस बात का कोई ज़िक्र नहीं किया। जबकि मिलाद मनाने वाला तब्क़ा इमान अबू हनीफा (رَحِمَهُ ٱللَّٰهُ) की तक़लीद करता है।
8. इमाम बुखारी और मुस्लिम इनकी जमा करदा हर हदीस बिना शक ओ शुब्हा के क़ाबिल ए क़ुबूल है पर इसमें भी ऐसी कोई हदीस नहीं मिलती जिससे इस दिन जश्न मन साबित हो।
इन बातों को जानने के बाद आपको इतना तो समझ आ गया होगा के जो रसूलुल्लाह (ﷺ) के ज़्यादा करीब थे मसलन उनकी बेटी, उसने भाई, उनके दोस्त और उनके नवासे जब उन्होंने इस दिन को खास नहीं बनाया तो हम किस बिना पर इस दिन को खास बना रहे हैं।
क्या सिर्फ कुछ गिने चुने मुहद्दिसीन और उलेमा की बात आप (ﷺ) की बात से ऊपर है?
सोचें, समझें और अपना फैसला खुद लें।
"आज मैंने तुम्हारे दीन को मुकम्मल कर दिया है और तुमपर अपनी नेअमत पूरी कर दी है और तुम्हारे लिए इस्लाम को दीन की हैसियत से पसन्द कर लिया है।" [क़ुरआन 5: 3]
दीन मुकम्मल हो चुका है, हमें सिर्फ उसपर अमल करना है न की इसमें नई चीज़ों की ईजाद।
रसूलुल्लाह (ﷺ) ने फ़रमाया, "उस चीज़ को छोड़ दो जो तुम्हें शक़ में डाले और उसे अख़्तियार करो जो तुम्हे शक़ में न डाले।" [सुन्नन तिर्मिज़ी 2518]
लिहाज़ा गुनाह का इर्तेक़ाब करने से बेहतर है शक़ वाली चीज़ को छोड़ दिया जाये।
अल्लाह हम सबको हिदायत दे। बिदअत, खुराफातों और शैतानी वस्वसों से हमारी हिफाज़त करे।
आमीन
By Islamic Theology
2 टिप्पणियाँ
Masha Allah
जवाब देंहटाएंMasha Allah bhot khoob samjhaya
जवाब देंहटाएंकृपया कमेंट बॉक्स में कोई भी स्पैम लिंक न डालें।