क्या हया (शर्म) सिर्फ़ औरतों के लिए है?
[क़ुरआन की रौशनी में]
जब कभी भी बात हया के ताल्लुक से आती है तो हम सब के ज़हन में एक इमेज उभर कर आती है और वो ये कि औरतों को शर्म व हया का पैकर होना चाहिए। ऐसा महसूस होता है की हया सिर्फ़ औरतों के लिए है और दुनिया के तमाम लोग चाहे मर्द हो या औरत, सिर्फ़ औरतों से ही ये उम्मीद करते हैं कि उनमें हया होनी चाहिए आज दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए हम सिर्फ औरतों को ही कोसते हैं।
तो क्या हया का ताल्लुक़ केवल औरतों से है?
क्या दुनिया में जो बुराई और बेहयाई फैली हुई है उसके लिए सिर्फ़ औरत ही जिम्मेदार हैं?
और इस हवाले से इस्लाम का नज़रिया क्या है?
इस आर्टिकल में हम हया के ताल्लुक से कुछ अहम बिंदुओं पर रोशनी डालेंगे-
1. हया – ईमान का हिस्सा है:
अबू हुरैरह (रज़ि.) बयान करते हैं कि रसूलल्लाह (ﷺ) ने फरमाया :
“ईमान की सत्तर से कुछ ज्यादा शाखें हैं ;…. और हया [शर्म] भी ईमान की एक शाख है।”
[सहीह बुखारी 9; सहीह मुस्लिम 153]
2. निगाह की हिफाजत:
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का फ़रमान है-
मर्दों के लिए:
"ऐ नबी, ईमानवाले मर्दो से कहो कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें। ये उनके लिये ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है, जो कुछ वो करते हैं अल्लाह उससे बाख़बर है।" [सूरह नूर 24:30]
औरतों के लिए:
"और ऐ नबी, ईमानवाली औरतों से कह दो कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें और अपना बनाव-सिंगार न दिखाएँ सिवाय उसके जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाए और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें।
वो अपना बनाव-सिंगार न ज़ाहिर करें मगर इन लोगों के सामने – शौहर, बाप, शौहरों के बाप(ससुर), अपने बेटे, शौहरों के बेटे, भाई, भाइयों के बेटे, बहनों के बेटे, अपने मेल-जोल की औरतें, अपनी मिलकियत में रहने वाले लौंडी-ग़ुलाम, और वो मातहत मर्द जो किसी और तरह की ग़रज़ न रखते हों, और वो बच्चे जो औरतों की छिपी बातों को अभी जानते न हों।
और औरतें पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि पनी जो ज़ीनत उन्होंने छिपा रखी हो, उसका लोगों को पता चल जाए। ऐ ईमानवालो, तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, उम्मीद है कि कामयाबी पाओगे।" [सूरह नूर 24:31]
उम्मुल-मोमिनीन सैयदा आयशा (रज़ि०) ने बयान किया कि अल्लाह तआला पिछले मुहाजिर औरतें पर रहम फ़रमाए। जब अल्लाह का ये हुक्म नाज़िल हुआ (وَلْيَضْرِبْنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَى جُيُوبِهِنَّ) तो उन्होंने ऊन की मोटी-मोटी चादरें फाड़ कर अपनी ओढ़नियाँ बना लीं। [सुनन अबू दाऊद : 4102]
3. पर्दे के अहकाम:
"ऐ नबी ﷺ अपनी बीवियों और बेटियों और ईमान वाली औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें। ये ज़्यादा मुनासिब तरीक़ा है ताकि वो पहचान ली जायें और सताई न जाएँ। अल्लाह माफ़ करने वाला और रहम करने वाला है।" [सूरह अहजाब 33:59]
4. ज़िना के करीब जाने की मनाही:
इस्लाम ने हया को इमान का हिस्सा करार देकर मर्द और औरत दोनों को ज़िना जैसे संगीन गुनाह की ओर जाने से मना किया ताकि इंसान की पकीजगी बनी रहे और इमान सलामत रहे। इस्लाम में ज़िना (व्यभिचार ) कराने वाले मर्द या औरत की दुनिया और आख़िरत दोनो तबाह हो जाती है। यही वजह है कि ऐसे बुरे काम जिनसे आदमी ज़िना के करीब भी जाता हो, उनसे भी क़ुरआन में रोका गया है।
अल्लाह तआला क़ुरआन में इरशाद फरमाता है:
"ज़िना के करीब भी मत जाओ, क्योंकि ये खुली हुई बेहयाई और बहुत बुरा रास्ता है।" [सूरह बनी इस्राईल 17: 32]
और ज़िना से बचे रहने वाले बंदों की तारीफ इस शान के साथ क़ुरआन में आया है:
"(रहमान के सच्चे बन्दे वो है)…. जो ज़िना नहीं करते।" [सूरह फुरकान 25: 68 से मफ़हूम]
"यक़ीनन जो मर्द और औरतें मुस्लिम हैं, मोमिन हैं, फ़रमाँबरदार हैं, सच्चे हैं, सब्र करनेवाले हैं, अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं, सदक़ा देनेवाले हैं, रोज़ा रखनेवाले हैं, अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करने वाले हैं, और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने वाले हैं, अल्लाह ने उनके लिये माफ़ी और बड़ा बदला तैयार कर रखा है।" [सूरह अहजाब 33:35]
ऐसे लोग जो बेहयाई आम करने के साधन मुहैया करवाते है और ऐसा माहौल पैदा करते है जिससे समाज में ज़िना करना आसान हो जाये उन्हें भी सख़्त सज़ा की खबर दी गयी है:
"जो लोग चाहते हैं कि ईमान वालों की जमाअत (गिरोह) में बेहयाई फैल जाये, बेशक उनके लिये दुनिया और आख़िरत में दर्दनाक अज़ाब है और खुदा ख़ूब जानता है और तुम लोग नहीं जानते।" [सूरह नूर 24:19]
अब तक जो भी आयात और अहदीस का हम ने जायजा लिया इस से साबित होता है कि शर्म वा हया न केवल औरतों के लिए है बल्कि मर्दों में भी शर्म वा हया होनी चाहिए पोस्ट ज्यादा लंबी न हो इसलिए हम अपनी कलम को यहीं विराम देते हैं।
इंशा अल्लाह, पार्ट-2 में हम हया के ताल्लुक़ से सुन्नते नबवी ﷺ की कुछ अहदीसों पर गौर व फिक्र करेंगे।
अल्लाह हमें और आप को सही दीन पढ़ने समझने और अमल करने की तौफीक अता फरमाए।
आमीन
फ़िरोज़ा
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