Qur'an (series 7): Arbi zuban mein kyun nazil kiya gaya?

Qur'an (series 7): Quran ko arbi zuban mein kyun nazil kiya gaya?


कुरआन को अरबी ज़बान में क्यों नाजिल किया गया?


कुछ नासमझ लोग ये ऐतराज करते नज़र आते है कि अल्लाह ने अपने आखिरी पैगाम यानी कुरआन को अरबी ज़बान में क्यों नाजिल किया? और वह ये कहते है कि अल्लाह ने किसी और ज़बान में कुरआन नाजिल क्यों नहीं किया? 

इस ऐतराज के जवाब से पहले आप ये समझें कि अल्लाह अपना पैगाम पहुंचाने के लिए किसी भी ज़बान का मोहताज नहीं है। ज़बान इंसानों को बात समझाने के लिए है ताकि सब इंसान उस पैगाम को समझ जाएं। और इंसानों की ज़बानों का अलग अलग होना भी अल्लाह ही की निशानीयों में से एक है।


وَ مِنۡ اٰیٰتِہٖ خَلۡقُ السَّمٰوٰتِ وَ الۡاَرۡضِ وَ اخۡتِلَافُ اَلۡسِنَتِکُمۡ وَ اَلۡوَانِکُمۡ ؕ اِنَّ فِیۡ ذٰلِکَ لَاٰیٰتٍ لِّلۡعٰلِمِیۡنَ 

"और उसकी निशानियों में से ये है आसमानों और ज़मीन की पैदाइश, और तुम्हारी ज़बानों और तुम्हारे रंगों का इख़्तिलाफ़ है। यक़ीनन इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं दानिशमन्द लोगों के लिये।"

[कुरआन 30:22]


जब सब ज़बान ही अल्लाह ने बनाई है तो अल्लाह अपना पैगाम किसी भी ज़बान में दें बस उसका मकसद पूरा होना चाहिए। अगर अल्लाह अपना पैगाम अरबी के अलावा किसी और ज़बान में पहुंचाता तो भी कुछ लोग ये ऐतराज कर देते कि ये हमारी ज़बान में क्यों नहीं है? और चाहे अल्लाह दुनिया की किसी भी ज़बान में कुरआन को उतारता तो ऐतराज करने वाले इसपर फिर भी यही ऐतराज करते। इस स्तिथि का सिर्फ एक ही हल था कि अल्लाह दुनिया की सब ज़बानो में से किसी एक ज़बान का इंतेखाब करे और जिस कॉम की वो ज़बान हो सबसे पहले उसे अच्छी तरह बात पहुंचा दे। और फिर उसके बाद अल्लाह उस कॉम को जिम्मेदारी दे दें कि अब उठो और पूरी दुनिया के सब इंसानों तक ये पैग़ाम उन्ही की अपनी ज़बान में पहुंचा दो। और अल्लाह ने भी बिलकुल यही तरीका अपनाया कि अपना आखिरी पैग़ाम इंसानों तक पहुंचाने के लिए अरबी ज़बान का इंतेखाब किया। क्योंकि अल्लाह ने अपने आखिरी पैगम्बर को अरब में ही भेजा था। और वह अरबी ज़बान ही बोलते थे। इसलिए अल्लाह ने सबसे पहले अपने पैगम्बर के जरिए इस कुरआन को अरबों तक पहुंचाया और फिर उनकी ये जिम्मेदारी लगा दी की इस कुरआन को सब इंसानों तक पहुंचा दें।


अगर अल्लाह अरबों को पैगाम समझाने के लिए अरबी के अलावा कोई दूसरी ज़बान चुनता तो अरब ऐतराज करते कि ये कैसा पैगम्बर है कि अरब होकर दूसरी ज़बान में पैगाम सुना रहा है जो कि हमे बिलकुल भी समझ नहीं आ रही है। लेकिन अरब के मुशरिको की मानसिकता उस दौर में उलट ही थी वो ये कहते थे कि इस कुरआन को अरबी ज़बान में क्यों भेजा जा रहा है? इसी ऐतराज का जवाब अल्लाह ने कुरआन में कुछ यूं दिया;


وَ لَوۡ جَعَلۡنٰہُ قُرۡاٰنًا اَعۡجَمِیًّا لَّقَالُوۡا لَوۡ لَا فُصِّلَتۡ اٰیٰتُہٗ ؕ ءَؔاَعۡجَمِیٌّ وَّ عَرَبِیٌّ ؕ قُلۡ ہُوَ لِلَّذِیۡنَ اٰمَنُوۡا ہُدًی وَّ شِفَآءٌ ؕ وَ الَّذِیۡنَ لَا یُؤۡمِنُوۡنَ فِیۡۤ اٰذَانِہِمۡ وَقۡرٌ وَّ ہُوَ عَلَیۡہِمۡ عَمًی ؕ اُولٰٓئِکَ یُنَادَوۡنَ مِنۡ مَّکَانٍ ۢ بَعِیۡدٍ 

"अगर हम इसको अजमी (ग़ैर-अरबी) क़ुरआन बनाकर भेजते तो ये लोग कहते, “क्यों न इसकी आयतें खोलकर बयान की गईं? क्या अजीब बात है कि कलाम अजमी और सुननेवाले अरबी।” इनसे कहो, ये क़ुरआन ईमान लानेवालों के लिये तो हिदायत और शिफ़ा (बीमारी दूर करनेवाला) है, मगर जो लोग ईमान नहीं लाते, उनके लिये ये कानों की डाट और आँखों की पट्टी है। उनका हाल तो ऐसा है जैसे उनको दूर से पुकारा जा रहा हो।"

[कुरआन 41-44]


ये उस हठधर्मी का एक और नमूना है जिससे नबी (सल्ल०) का मुक़ाबला किया जा रहा था। इस्लाम-दुश्मन कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) अरब हैं, अरबी उनकी मादरी ज़बान है, वे अगर अरबी ज़बान में क़ुरआन पेश करते हैं तो ये कैसे माना जा सकता है कि ये कलाम उन्होंने ख़ुद नहीं गढ़ लिया है, बल्कि उनपर ख़ुदा ने उतारा है। उनके इस कलाम को ख़ुदा का उतारा हुआ कलाम तो उस वक़्त माना जा सकता था जब ये किसी ऐसी ज़बान में यकायक धुआँधार तक़रीर करना शुरू कर देते जिसे ये नहीं जानते, मसलन फ़ारसी या रूमी या यूनानी। इसपर अल्लाह फ़रमाता है कि अब इनकी अपनी ज़बान में क़ुरआन भेजा गया है जिसे ये समझ सकें तो इनको ये एतिराज़ है कि अरब के ज़रिए से अरबों के लिये अरबी ज़बान में ये कलाम क्यों उतारा गया। लेकिन अगर किसी दूसरी ज़बान में ये भेजा जाता तो उस वक़्त यही लोग ये एतिराज़ करते कि ये मामला भी ख़ूब है। अरब क़ौम में एक अरब को रसूल बनाकर भेजा गया है, मगर कलाम उसपर ऐसी ज़बान में उतारा गया है जिसे न रसूल समझता है, न क़ौम।

अरबों के लिए अरबी में ही कुरआन का होना अकल के मुताबिक है। और इसी बात को अल्लाह कुरआन में बार बार अरबों को समझा रहा है।


اِنَّا جَعَلۡنٰہُ قُرۡءٰنًا عَرَبِیًّا لَّعَلَّکُمۡ تَعۡقِلُوۡنَ ۚ

"कि हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है, ताकि तुम लोग इसे समझो।"

[कुरआन 43:3]


इस आयत के दो मतलब हैं- 

1. ये कुरआन किसी अजनबी ज़बान में नहीं है, बल्कि तुम्हारी अपनी ज़बान में है, इसलिये इसे जाँचने-परखने और इसकी क़द्रो-क़ीमत का अंदाज़ा करने में तुम्हें कोई दिक़्क़त पेश नहीं आ सकती। ये किसी अजमी (ग़ैर-अरबी) ज़बान में होता तो तुम ये बहाना कर सकते थे कि हम इसके अल्लाह के कलाम होने या न होने की जाँच कैसे करें, जबकि हमारी समझ ही में ये नहीं आ रहा है। लेकिन इस अरबी क़ुरआन के बारे में तुम ये बहाना कैसे कर सकते हो। इसका एक-एक लफ़्ज़ तुम्हारे लिये वाज़ेह है। इसकी हर इबारत अपनी ज़बान और अपनी बातों, दोनों के लिहाज़ से तुमपर रौशन है। ख़ुद देख लो कि क्या ये मुहम्मद (सल्ल०) का या किसी दूसरे अरब का कलाम हो सकता है।

2. इस किताब की ज़बान हमने अरबी इसलिये रखी है कि हम अरब क़ौम से बात कर रहे हैं और वे अरबी ज़बान के क़ुरआन ही को समझ सकती है। अरबी में क़ुरआन उतारने की इतनी ज़्यादा सही और मुनासिब वजह को नज़रअंदाज़ करके जो सिर्फ़ इस वजह से अल्लाह के कलाम के बजाय मुहम्मद (सल्ल०) का कलाम ठहराता है कि मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी ज़बान अरबी है तो वो बड़ी ज़्यादती करता है।


اَمۡ یَقُوۡلُوۡنَ افۡتَرٰىہُ ۚ بَلۡ ہُوَ الۡحَقُّ مِنۡ رَّبِّکَ لِتُنۡذِرَ قَوۡمًا مَّاۤ اَتٰہُمۡ مِّنۡ نَّذِیۡرٍ مِّنۡ قَبۡلِکَ لَعَلَّہُمۡ یَہۡتَدُوۡنَ 

"क्या ये लोग कहते हैं कि इस शख़्स ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है? नहीं, बल्कि ये हक़ है तेरे रब की तरफ़ से ताकि तू ख़बरदार करे एक ऐसी क़ौम को जिसके पास तुझसे पहले कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया, शायद कि वो सीधा रास्ता पा जाएँ।"

[कुरआन 32:3]


وَ لَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِیۡ ہٰذَا الۡقُرۡاٰنِ مِنۡ کُلِّ مَثَلٍ لَّعَلَّہُمۡ یَتَذَکَّرُوۡنَ- قُرۡاٰنًا عَرَبِیًّا غَیۡرَ ذِیۡ عِوَجٍ لَّعَلَّہُمۡ یَتَّقُوۡنَ 

"हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह की मिसालें दी हैं कि ये होश में आएँ। ऐसा क़ुरआन जो अरबी ज़बान में है, जिसमें कोई टेढ़ नहीं है, ताकि ये बुरे अंजाम से बचें।"

[कुरआन 39:27-28]


यानी ये किसी अजनबी ज़बान में नहीं आया है कि मक्का और अरब के लोग इसे समझने के लिये किसी तर्जमा करनेवाले या समझानेवाले के मोहताज हों, बल्कि ये उनकी अपनी ज़बान में है जिसे ये सीधे तौर पर ख़ुद समझ सकते हैं। और इसमें ऐंच-पेंच की भी कोई बात नहीं है कि आम आदमी के लिये इसको समझने में कोई मुश्किल पेश आए, बल्कि साफ़-साफ़ सीधी बात कही गई है, जिसे हर आदमी जान सकता है कि ये किताब किस चीज़ को ग़लत कहती है और क्यों, किस चीज़ को सही कहती है और किस बुनियाद पर, क्या मनवाना चाहती है और किस चीज़ का इनकार कराना चाहती है, किन कामों का हुक्म देती है और किन कामों से रोकती है?


وَ کَذٰلِکَ اَنۡزَلۡنٰہُ قُرۡاٰنًا عَرَبِیًّا وَّ صَرَّفۡنَا فِیۡہِ مِنَ الۡوَعِیۡدِ لَعَلَّہُمۡ یَتَّقُوۡنَ اَوۡ یُحۡدِثُ لَہُمۡ ذِکۡرًا 

"और ऐ नबी, इसी तरह हमने इसे अरबी क़ुरआन बनाकर उतारा है और इसमें तरह-तरह से तंबीहें (चेतावनियाँ) की हैं, शायद कि ये लोग टेढ़े रास्ते पर चलने से बचें या इनमें कुछ होश के आसार इसकी वजह से पैदा हों।"

[कुरआन 20:113]


कुरआन को अरबी ज़बान में इसलिए नाजिल किया गया है कि ताकि लोग (अरब के लोग) इसको समझें। इसी बात को जगह जगह कुरआन में बताया गया है;


وَ لَقَدۡ ضَرَبۡنَا لِلنَّاسِ فِیۡ ہٰذَا الۡقُرۡاٰنِ مِنۡ کُلِّ مَثَلٍ لَّعَلَّہُمۡ یَتَذَکَّرُوۡنَ - قُرۡاٰنًا عَرَبِیًّا غَیۡرَ ذِیۡ عِوَجٍ لَّعَلَّہُمۡ یَتَّقُوۡنَ 

"हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह की मिसालें दी हैं कि ये होश में आएँ। ऐसा क़ुरआन जो अरबी ज़बान में है, जिसमें कोई टेढ़ नहीं है, ताकि ये बुरे अंजाम से बचें।"

[कुरआन 39:27-28]


यानी ये किसी अजनबी ज़बान में नहीं आया है कि मक्का और अरब के लोग इसे समझने के लिये किसी तर्जमा करनेवाले या समझानेवाले के मोहताज हों, बल्कि ये उनकी अपनी ज़बान में है जिसे ये सीधे तौर पर ख़ुद समझ सकते हैं।

यानी इसमें ऐंच-पेंच की भी कोई बात नहीं है कि आम आदमी के लिये इसको समझने में कोई मुश्किल पेश आए, बल्कि साफ़-साफ़ सीधी बात कही गई है, जिसे हर आदमी जान सकता है कि ये किताब किस चीज़ को ग़लत कहती है और क्यों, किस चीज़ को सही कहती है और किस बुनियाद पर, क्या मनवाना चाहती है और किस चीज़ का इनकार कराना चाहती है, किन कामों का हुक्म देती है और किन कामों से रोकती है?


کِتٰبٌ فُصِّلَتۡ اٰیٰتُہٗ قُرۡاٰنًا عَرَبِیًّا لِّقَوۡمٍ یَّعۡلَمُوۡنَ

"एक ऐसी किताब जिसकी आयतें ख़ूब खोलकर बयान की गई हैं, अरबी ज़बान का क़ुरआन, उन लोगों के लिये जो इल्म रखते हैं।"

[कुरआन 41:3]


وَ کَذٰلِکَ اَوۡحَیۡنَاۤ اِلَیۡکَ قُرۡاٰنًا عَرَبِیًّا لِّتُنۡذِرَ اُمَّ الۡقُرٰی وَ مَنۡ حَوۡلَہَا وَ تُنۡذِرَ یَوۡمَ الۡجَمۡعِ لَا رَیۡبَ فِیۡہِ ؕ فَرِیۡقٌ فِی الۡجَنَّۃِ وَ فَرِیۡقٌ فِی السَّعِیۡرِ

"हाँ, इसी तरह ऐ नबी! ये अरबी क़ुरआन हमने तुम्हारी तरफ़ वही किया है, ताकि तुम बस्तियों के मरकज़ (मक्का शहर) और उसके आस-पास रहनेवालों को ख़बरदार कर दो और इकट्ठा होने के दिन से डरा दो जिसके आने में कोई शक नहीं। एक गरोह को जन्नत में जाना है और दूसरे गरोह को जहन्नम में।"

[कुरआन 42:7]


वही बात फिर दोहराकर ज़्यादा ज़ोर देते हुए कही गई है जो बात के शुरू में कही गई थी और अरबी क़ुरआन कहकर सुननेवालों को ख़बरदार किया गया है कि ये किसी अजनबी ज़बान में नहीं है, तुम्हारी अपनी ज़बान में है। तुम सीधे तौर से इसे ख़ुद समझ सकते हो। इसकी बातों पर ग़ौर करके देखो कि ये पाक-साफ़ और बेग़रज़ रहनुमाई क्या ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ से भी हो सकती है।

यानी उन्हें ग़फ़लत से चौंका दो और ख़बरदार कर दो कि ख़यालात और अक़ीदों की जिन गुमराहियों और अख़लाक़ और किरदार की जिन ख़राबियों में तुम लोग मुब्तला हो और तुम्हारी निजी और समाजी (क़ौमी) ज़िन्दगी जिन बिगड़े हुए उसूलों पर चल रही है, उनका अंजाम तबाही के सिवा कुछ नहीं है।

यानी उन्हें ये भी बता दो कि ये तबाही और बरबादी सिर्फ़ दुनिया ही तक महदूद नहीं है, बल्कि आगे वो दिन भी आना है जब अल्लाह तमाम इन्सानों को इकट्ठा करके उनका हिसाब लेगाI दुनिया में अगर कोई इंसान अपनी गुमराही और बुरे कामों के बुरे नतीजों से बच निकला तो उस दिन बचाव की कोई सूरत नहीं हैI और बड़ा ही बदकिक़िस्मत है वो जो यहाँ भी ख़राब हो और वहाँ भी उस की शामत आएI


وَ مِنۡ قَبۡلِہٖ کِتٰبُ مُوۡسٰۤی اِمَامًا وَّ رَحۡمَۃً ؕ وَ ہٰذَا کِتٰبٌ مُّصَدِّقٌ لِّسَانًا عَرَبِیًّا لِّیُنۡذِرَ الَّذِیۡنَ ظَلَمُوۡا ٭ۖ وَ بُشۡرٰی لِلۡمُحۡسِنِیۡنَ 

"हालाँकि इससे पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत बनकर आ चुकी है और ये किताब उसकी तस्दीक़ करनेवाली ज़बान अरबी में आई है, ताकि ज़ालिमों को ख़बरदार कर दे और सही रवैया अपनानेवालों को ख़ुशख़बरी दे दे।"

[कुरआन 46:12]


کِتٰبٌ فُصِّلَتۡ اٰیٰتُہٗ قُرۡاٰنًا عَرَبِیًّا لِّقَوۡمٍ یَّعۡلَمُوۡنَ ۙ

"एक ऐसी किताब जिसकी आयतें ख़ूब खोलकर बयान की गई हैं, अरबी ज़बान का क़ुरआन, उन लोगों के लिये जो इल्म रखते हैं।"

[कुरआन 41:3]


इस आयत से बहुत सी बातें कह दी गई है:

1. ये कलाम ख़ुदा की तरफ़ से उतर रहा है। यानी तुम जब तक चाहो ये रट लगाते रहो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुद गढ़ रहे हैं, लेकिन सच्चाई यही है कि इस कलाम का उतरना सारे जहानों के रब ख़ुदा की तरफ़ से है। इसके अलावा ये फ़रमाकर सुननेवालों को इस बात पर भी ख़बरदार किया गया है कि तुम अगर इस कलाम को सुनकर नाक-भौं सिकोड़ते हो तो तुम्हारा ये ग़ुस्सा मुहम्मद (सल्ल०) के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि ख़ुदा के ख़िलाफ़ है, अगर इसे रद्द करते हो तो एक इन्सान की बात नहीं, बल्कि ख़ुदा की बात रद्द करते हो और अगर इससे बेरुख़ी बरतते हो तो एक इन्सान से नहीं, बल्कि ख़ुदा से मुँह मोड़ते हो।

2. इसका उतारनेवाला वो ख़ुदा है जो अपनी मख़लूक़ (पैदा किये हुओं) पर बेइन्तिहा मेहरबान (रहमान और रहीम) है। उतारनेवाले ख़ुदा की दूसरी सिफ़ात के बजाय रहमत (दयालुता) की सिफ़त का ज़िक्र इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करता है कि उसने अपनी रहीमी के तक़ाज़े से ये कलाम उतारा है। इससे सुननेवालों को ख़बरदार किया गया है कि इस कलाम से अगर बेरुख़ी बरतता है, या इसे रद्द करता है, या इसपर नाक-भौं सिकोड़ता है तो हक़ीक़त में अपने आपसे दुश्मनी करता है। ये तो एक बड़ी नेमत है जो ख़ुदा ने सरासर अपनी रहमत की बुनियाद पर इन्सानों की रहनुमाई, भलाई और कामयाबी के लिये उतारी है। ख़ुदा अगर इन्सानों से बेरुख़ी बरतता तो उन्हें अँधेरे में भटकने के लिये छोड़ देता और कुछ परवाह न करता कि ये किस गढ़े में जाकर गिरते हैं, लेकिन ये उसकी मेहरबानी और उसका करम है कि पैदा करने और रोज़ी देने के साथ उनकी ज़िन्दगी सँवारने के लिये इल्म की रौशनी दिखाना भी वो अपनी ज़िम्मेदारी समझता है और इसी वजह से ये कलाम अपने एक बन्दे पर उतार रहा है। अब उस शख़्स से बढ़कर नाशुक्रा और आप अपना दुश्मन कौन होगा जो इस रहमत से फ़ायदा उठाने के बजाय उलटा उससे लड़ने के लिये दौड़े। 

3. इस किताब की आयतें खोलकर बयान की गई हैं। यानी इसमें कोई बात उलझी हुई और पेचीदा नहीं है कि कोई शख़्स इस बुनियाद पर इसे क़बूल करने से मजबूरी ज़ाहिर कर दे कि उसकी समझ में इस किताब की बातें आती ही नहीं हैं। इसमें तो साफ़-साफ़ बताया गया है कि हक़ क्या है और बातिल क्या, सही अक़ीदे कौन-से हैं और ग़लत अक़ीदे कौन-से, अच्छे अख़लाक़ क्या हैं और बुरे अख़लाक़ क्या, भलाई क्या है और बुराई क्या, किस तरीक़े की पैरवी में इन्सान की भलाई है और किस तरीक़े को अपनाने में उसका अपना नुक़सान है। ऐसी साफ़ और खुली हिदायत को अगर कोई शख़्स रद्द करता है या उसकी तरफ़ ध्यान नहीं देता तो वो कोई बहाना पेश नहीं कर सकता। उसके इस रवैये का साफ़ मतलब ये है कि वो ख़ुद ग़लत राह पर रहना चाहता है। 

4. ये अरबी ज़बान का क़ुरआन है। मतलब ये है कि अगर ये क़ुरआन किसी ग़ैर-ज़बान में आता तो अरब के लोग ये बहाना पेश कर सकते थे कि हम उस ज़बान ही से अनजान हैं जिसमें ख़ुदा ने अपनी किताब भेजी है। लेकिन ये तो उनकी अपनी ज़बान में है। इसे न समझ सकने का बहाना वे नहीं बना सकते।

5. ये किताब उन लोगों के लिये है जो इल्म रखते हैं। यानी इससे फ़ायदा सिर्फ़ अक़लमंद लोग ही उठा सकते हैं। नादान लोगों के लिये ये इसी तरह बेफ़ायदा है जिस तरह एक क़ीमती हीरा उस शख़्स के लिये बेफ़ायदा है जो हीरे और पत्थर का फ़र्क़ न जानता हो।

6. ये किताब ख़ुशख़बरी देनेवाली और डरा देनेवाली है। यानी ऐसा नहीं है कि ये सिर्फ़ एक ख़याल, एक फ़लसफ़ा और अदब का एक बेहतरीन नमूना पेश करती हो, जिसे मानने या न मानने का कुछ हासिल न हो, बल्कि ये हाँके-पुकारे तमाम दुनिया को ख़बरदार कर रही है कि इसे मानने के नतीजे बहुत शानदार और न मानने के नतीजे बेहद भयानक हैं। ऐसी किताब को सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ ही सरसरी तौर पर नज़रअन्दाज़ कर सकता है।


By इस्लामिक थियोलॉजी

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